बचपन

धूप सुनहरी छाँव सुनहरी,
बचपन में सब सुंदर है।
बाग - बगीचे, घर - घाट सब
मन, तन से भी सुंदर है।

कोई नहीं अनमोल धरोहर,
बचपन सबसे सुंदर है।
लालन - पालन है धरती से,
आँचल मैय्या सी सुंदर है।

बचपन को रहने दो बचपन,
बिना डोर सी पतंग उड़े।
जिधर ज्ञान की चलें हवाएँ,
उछल - कूद कर उधर बढें।

अज्ञानी, धरा पर सहज खड़े हैं,
लेकर स्वर्ण ज़ंजीर तनिक।
बाँध के कहते छू अम्बर को,
बचपन है तू काल पथिक।

कल नहीं है आज नहीं है,
बचपन, है सबका ही भविष्य।
तोड़ो लालच - स्वार्थ के बंधन,
छूने दो जो है अदृश्य।

मेरा बचपन दे दो मुझको,
दे दो मेरी धरा पवित्र।
अम्बर में ना कालिख भेजो,
उड़ने दो मुझको सर्वत्र।

काम एक ज़ंजीर से लेते,
नाम दिए तुमने कितने?
धूप सुनहरी जैसे सपने,
तुमने तोड़े हैं कितने?

छोड़ो अब अज्ञान की ज़िद सब,
परवाज़ पंख को करने दो।
तोड़ूँगा मैं सब दीवारें,
हवा पंख में भरने दो।

ज़हर ना खोलो बगिया में,
पावन हर बचपन रहने दो।
जो भी दिया धरा ने हमको,
कुछ तो हमको रहने दो।

छिपा भविष्य है सब बचपन में,
बचपन को बचपन रहने दो।
छिपा भविष्य है सब बचपन में,
बचपन को बचपन रहने दो।।
बचपन को बचपन रहने दो..

रचयिता
नवीन कुमार,
सहायक अध्यापक,
माडल विद्यालय कलाई,
विकास खण्ड-धनीपुर,
जनपद-अलीगढ़।

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