179/2025, बाल कहानी- 29 अक्टूबर


बाल कहानी- गड़ा हुआ धन
----------------------

एक दिन रोज की तरह राजू की माँ बच्चों के लिए नाश्ता तैयार कर रही थी। दादी अपनी पूजा निबटाकर राजू को स्कूल के लिए उठा रही थी। मुनिया तो उठकर स्कूल जाने के लिए तैयार भी हो चुकी थी, पर राजू अभी भी अलसाया-सा बैठा था। किसी प्रकार राजू भी स्कूल के लिए तैयार हुआ। दादी ने इसी समय मन में निश्चय कर लिया कि रात में बच्चों को कौन-सी कहानी सुनानी है? हमेशा की तरह राजू और मुनिया उछलते कूदते स्कूल से लौटे और 'दादी..दादी' कहते दादी से लिपट गए, पर यह क्या? राजू कुछ परेशान-सा लग रहा था। 
"क्या हुआ राजू!" दादी ने प्यार से पूछा! राजू के बोलने से पहले मुनिया बोल पड़ी, "पता है दादी! आज राजू होमवर्क करके नहीं गया था। टीचर ने राजू पर बहुत गुस्सा किया और इसे सजा मिली है कि यह अपनी नोटबुक में 100 बार लिखेगा कि मैं आलस नहीं करूँगा।" दादी को हँसी आ गई। राजू रोने को हो आया और भाग कर माँ के पास पहुँचा। माँ ने कहा, "चल बेटा! पहले कुछ खा ले फिर होमवर्क भी हो जाएगा अरे राजू! मैं इसलिए हँस रही थी कि आज रात को मैं तुम लोगों को इसी पर कहानी सुनाने वाली हूँ।" दादी बात सँभालते हुए बोली, "रात होते ही राजू और मुनिया दादी के पास आ धमके। दादी ने गला साफ किया और कहानी सुनाने लगी, "बहुत पहले वीरपुर गाँव में एक जमींदार रहता था। उसके खेतों से सोना बरसता था। उसकी गौशाला में गाएँ बड़े आनन्द में थीं। कुल मिलाकर जमीदार पर लक्ष्मी बरस रही थी। जमींदार के एक पुत्र था हरि सिंह। 
समय सरकता रहा और जमींदार का अन्त समय आ गया। जमींदार के जाने के बाद कुछ दिन तक तो सब कुछ ठीक रहा पर धीरे-धीरे व्यवस्थाएँ पतन की ओर जाने लगीं। क्या खेत क्या, गौशाला सब जगह अव्यवस्था दृष्टिगोचर होने लगी। हरि सिंह अलसाया-सा दोपहर तक पड़ा रहता। सायं काल उसके कुछ लालची और स्वार्थी मित्र घेर लेते और मेहनत से पिता द्वारा अर्जित धन जुआ-शराब आदि व्यसनों में खर्च हो जाता। धीरे-धीरे लक्ष्मी जमींदार से रूठने लगी। हरिसिंह इन सबसे बेखबर अपनी दुनिया में मस्त रहता। 
हरि सिंह का एक सच्चा मित्र था सुनयन। उसने हरि सिंह की आँखें खोलने का निश्चय किया और बातों ही बातों में उसने हरि सिंह को बताया कि, "पिता की जो सम्पत्ति आप देख रहे हैं, इससे भी अधिक धन तो वो कहीं छुपाकर गये हैं, पर उसके बारे में तुम्हें कैसे पता सुनयन?" हरि सिंह ने आश्चर्य से पूछा! 
एक बार वह उस धन के बारे में मेरे पिता से चर्चा कर रहे थे तो, "कहाँ है वह धन? मुझे बताओ।" हरि सिंह अधीर हो उठा, "देखिए, स्थान तो उन्होंने बताया नहीं पर उनकी बातों से लगा कि धान, खेत, गौशाला या बाग-बगीचे में ही कहीं छुपाया गया है।" 
हरि सिंह का नशा हिरन हो चुका था। सुनयन ने अगला निशाना साधा, "इसमें बहुत मुश्किल नहीं है। कल प्रातः काल से हम उस छिपे हुए धन को ढूँढना प्रारम्भ कर देंगे।" हरि सिंह उसकी बातों में आ गया, "ठीक है सुनयन! इस काम में तुम मेरा साथ तो.. दोगे न?" 
"हाँ.. हाँ..।" हरि सिंह के हाथों को मजबूती से थामते हुए सुनयन ने कहा। "अगर साथ न देना होता तो मैं आपको इसके बारे में बताता ही क्यों, लेकिन आप इस बारे में किसी से कोई बात नहीं करेंगे। धन का मामला है। किसी को लालच आ गया तो और उसने आपसे पहले ढूँढ लिया तो..।" 
"ठीक है.. ठीक है। मैं किसी को कुछ नहीं बताऊँगा।" हरि सिंह छिपे खजाने की लालच में बहुत सवेरे उठ बैठा। सुनयन को साथ लिया और गौशाला की तरफ गया। गौशाला का हाल देखकर वह ठगा-सा रह गया। गायों के लिए न तो चारे की उचित व्यवस्था थी, न ही गौशाला में साफ सफाई थी। गायों के पीने का पानी कई दिनों से बदला नहीं गया था व कुछ गाएँ बीमार भी लग रही थी। मेरी गौशाला के ऐसे हाल हैं। तब-तक गौशाला में काम करने वालों को भी सूचना मिल गई। वे लोग ताबड़तोड़ आ गए व लगे बहाने बनाने। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि दोपहर तक सोने वाला हरि सिंह सामने खड़ा है। वहाँ का हाल जानकर हरि सिंह सुनयन के साथ खेतों की ओर मुड़ा। वहाँ का भी हाल बहुत बुरा था। फसलें पानी के अभाव में मुरझा गई थीं। खाद शायद महीनों से नहीं दी गई थी। स्थान-स्थान पर खरपतवार उगे थे कुछ खेतों में जानवर घुस आए थे। तब-तक खेतों में काम करने वाले भी आ गये। उन्हें भी विश्वास नहीं हुआ कि हरि सिंह सामने खड़ा है। बाग-बगीचे सबका यही हाल था। क्रोध और पश्चाताप से उसका हृदय जल उठा। उसने कातर दृष्टि से सुनयन की ओर देखा। सब कुछ बहुत अस्त-व्यस्त है। छिपा हुआ खजाना कौन कहे? यहाँ तो दिखता हुआ खजाना लुट रहा है। "निराश न हो मित्र! हम दोनों सुबह से शाम तक मेहनत करेंगे। खाली खेतों की गुड़ाई-जुताई और निराई का प्रबन्ध करेंगे। गौशाला में साफ-सफाई करेंगे। बगीचों में पेड़ों के नीचे थाल बनाकर कीटनाशक दवा का छिड़काव करेंगे। कहीं ना कहीं तो खजाना मिलेगा ही।" हरि सिंह पहले तो लालच में सवेरे उठने लगा, पर धीरे-धीरे उसकी आदत हो गई। अब उसे बिना काम के चैन ही नहीं पड़ता। मेहनत रंग लाने लगी। रूठी लक्ष्मी फिर वापस आयी। खेतों में घूमते हुए एक स्थान पर हरि सिंह स्वयं खरपतवार हटाने लगा। "खजाना यही तो नहीं है मित्र!" हरि सिंह अब तक समझ चुका था कि मेहनत ही वह गड़ा हुआ धन है। हरि ने सुन नयन की ओर देखा और दोनों साथ-साथ हँस पड़े।

#संस्कार_सन्देश -
मेहनत ही असली धन है। जो पुरुषार्थ से मिले, वही धन काम आता है।

कहानीकार-
डॉ० #सीमा_द्विवेदी (स०अ०)
कंपोजिट विद्यालय कमरौली जगदीश पुर (अमेठी)

✏️संकलन
📝टीम #मिशन_शिक्षण_संवाद
#दैनिक_नैतिक_प्रभात

Comments

Total Pageviews