171/2025, बाल कहानी- 14 अक्टूबर


बाल कहानी - कवच कुण्डल
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"भिक्षाम् देहि...भिक्षाम् देहि!" कर्ण के महल के द्वार पर खड़े ब्राह्मण ने जोर से दो बार आवाज दी। कर्ण आवाज सुनकर तुरन्त बाहर निकला। उसने ब्राह्मण को देखते ही प्रणाम किया। बाह्मण ने कहा, "राजन्! मुझे भिक्षा दो। मैंने सुना है कि आप द्वार पर आये अतिथि को खाली हाथ नहीं जाने देते। इसीलिए मैं बड़ी आशा और अभिलाषा से आपके द्वार पर याचक बनकर आया हूँ।"
"आपने सही सुना है ब्राह्मण देवता! बताइए, मैं आपकी क्या सेवा करूँ? आप भवन के अन्दर चलिए और मेरा आतिथ्य स्वीकार कीजिए।" कर्ण ने विनम्रतापूर्वक कहा।
"नहीं, राजन्! मैं यहाँ केवल एक विशेष प्रयोजन से आया हूँ और मेरा प्रयोजन आप ही सिद्ध कर सकते हैं।"
"बताइए, बाह्मण देव! आपको क्या चाहिए?"
"पहले आप मुझे वचन दीजिए कि जो मैं माँगूँगा, उसे आप सहर्ष मुझे प्रदान करेंगे।"
"हे देव! कर्ण के द्वार से आज तक कोई भी खाली हाथ नहीं गया है। आप नि:संकोचपूर्वक माँगिए। मैं आपको वचन देता हूँ।"
कर्ण की बात सुनकर वह ब्राह्मण बोला, "हे दान सिरोमणि कर्ण! आपके दान की चर्चा तीनों लोकों में हो रही है। समस्त भूमण्डल पर केवल आपकी ही चर्चा व्याप्त है। इस समय इस पृथ्वी पर आपके समान दानी और कोई दूसरा नहीं है।"
नहीं, प्रभु! आप मेरी व्यर्थ ही बढ़ाई कर रहे हैं। आप अपना प्रयोजन बताइए! दान देने में विलम्ब क्यों?"
"ठीक है राजन्! मैं यहाँआने का अपना प्रयोजन बतलाता हूँ, सुनिए- हे दानवीर! यदि आप दे सकें तो मुझे आपके अभेद्य कवच-कुण्डल चाहिए।"
"बस! इसमें इतना समय नष्ट क्यों करना? मैं जानता था कि आप मेरे अभेद्य कवच-कुण्डल के लिए यहाँ आयेंगे।"
"मतलब?"
"आप लज्जित मत होइये देवराज इन्द्र!" कर्ण के मुँह से ऐसी बात सुनकर ब्राह्मण वेशधारी इन्द्र अत्यन्त लज्जित हुए।
"अब आप अपने असली रुप में आ जाइये। मुझे आपके बारे में पहले से ही सब-कुछ ज्ञात था। मेरे पिता सूर्यदेव ने मुझे पहले ही आपके आने की सूचना दे दी थी।" यह सुनकर इन्द्र अपने असली स्वरुप में आ गए और बोले, "दानवीर कर्ण! तो क्या आप अपने वचन से फिर जाओगे?"
"कर्ण किसी को भी दिए गए वचन से आज तक नहीं फिरा है और न ही फिरेगा।"
"धन्य हो कर्ण! तुम धन्य हो! तुम्हारे जैसा दानवीर तुम्हारे अलावा और कोई नहीं हो सकता।"
"आप अपना दाहिना हाथ आगे कीजिए, मैं आपको दान का संकल्प करता हूँ।" कर्ण की बात सुनकर इन्द्र ने कर्ण से संकल्प करवाया और फिर कर्ण ने अपने कवच-कुण्डल इन्द्र को प्रसन्नतापूर्वक दान कर दिए। कवच-कुण्डल लेकर इन्द्र सोचने लगा। मैं देवराज इन्द्र हूँ। मुझे भी इसे कुछ देना चाहिए। इन्द्र ने प्रसन्न होकर कर्ण को एक अमोघ शक्ति देकर कहा, "हे कर्ण! मैं तुम्हारी दानवीरता पर प्रसन्न होकर तुम्हें एक अमोघ शक्ति प्रदान कर रहा हूँ। यह एक ही बार प्रयोग में लायी जा सकती है। इसका बार कभी खाली नहीं जाता, चाहे उसकी रक्षा विधाता ही क्यों न करे।"
"धन्यवाद, देवराज! प्रणाम!"
'कल्याण हो' कहकर देवराज इन्द्र अपने लोक को चले गये। कर्ण अमोघ शक्ति के मिलने पर हर्षित होकर सोचने लगा, "बस! अर्जुन को ही तो मारना है। एक बार का प्रयोग मेरे लिए बहुत है।"

#संस्कार_सन्देश -
हमें किसी को दिए गए वचन का सदैव पालन करना चाहिए, इसी में हमारा यश निहित होता है।

रचनाकार-
#जुगल_किशोर_त्रिपाठी
प्रा० वि० बम्हौरी (कम्पोजिट)
मऊरानीपुर, झाँसी (उ०प्र०)

✏️संकलन-
📝टीम #मिशन_शिक्षण_संवाद
#दैनिक_नैतिक_प्रभात

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