176/2025, बाल कहानी- 24 अक्टूबर


बाल कहानी - दीप से दीप जला
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सारे लोग दीपावली की तैयारियों में जुटे हुए थे। शहर से गाँव आने वाले वाहन हों या गाँव से शहर जाने वाले, सभी सवारियों व माल सामान से ठसा-ठस भरे हुए सरपट सड़क पर दौड़े जा रहे थे। गाँव की दुकानें भी अब दीपावली के सामान से सज-धजकर काफी आकर्षक लग रही थीं। बच्चे, बूढ़े, जवान नर-नारी सारे खरीददारी में व्यस्त थे। 
"ये पटाखों का बाॅक्स कितने का है भैया?"
"तीन हजार का।" 
"अरे ! जरा सही दाम बताओ। यही लेना है मुझे तो, इसे जलाने में ही मजा आता है मुझे। पूरे आठ-दस मिनट तक पटाखे दूर आसमान तक जाकर फटते रहते हैं। सारे मुहल्ले में चमक छा जाती है लोग चौंक जाते हैं।"‌ "चलो, अठाईस सौ दे देना।"
"अरे नहीं.. ढाई हजार देता हूँ नकद।"  
"अच्छा.. चलो, बौनी का समय है, ले जाओ।" दीपावली में गाँव आया हुआ, साल भर से रिश्तेदारों व पिता जी के द्वारा दिए गए जेब खर्च से बचाकर रखे हुए रूपयों को ‌थैली में से निकाल मनीष गिनने लगा, तभी उसके सामने आहट-सी हुई और "मनीष! हैप्पी दीपावली" का परिचित सा स्वर सुनाई दिया। रूपयों को सँभालते हुए ऊपर देखा तो सुरेश सामने खड़ा था। "अरे तुम यहाँ कैसे?" 
"बस यों ही घूम रहा हूँ।" 
"देख यार! मैंने पटाखों की यह पेटी ढाई हजार में खरीद ली है, कैसा है?"  
"ढाई हजार!" 
"हाँ तो?" मनीष का उत्तर सुन सुरेश खामोश हो गया और कातर नजरों से इधर-उधर देखने लगा। 
"अच्छा, ये बता.. तू क्या कर रहा है आजकल?" मनीष ने पूछा। 
"क्या बताऊँ इण्टर करने के बाद कोई कोर्स करने का प्लान था लेकिन?" 
"लेकिन क्या, क्या हुआ?" 
"जुलाई में हुई भारी वर्षा से हमारा पूरा घर, खेत-बगीचे सब आपदा में बह गए। केवल हमारी जान ही बच पायी थी। इस गाँव में आजकल किसी रिस्तेदार के पुराने मकान में रहकर किसी तरह गुजारा कर रहे हैं। पापा दिल्ली नौकरी करने चले गए और मम्मी लोगों के घरों में काम कर परिवार चला रही है। मैं भी दीपावली के बाद पापा के साथ जाकर नौकरी करने की सोच रहा हूँ।" कहते हुए सुरेश रुवाँसा-सा हो गया।" 
"ओह! काफी परेशानी झेली होगी तुम लोगों ने.. मैं समझ सकता हूँ।" कहते हुए मनीष ने सुरेश के हाथ पकड़ लिए। 
"भैया! मैं बाद में लूँगा इसे" कहकर मनीष सुरेश के साथ सड़क के उस पार जाकर ढाई हजार रुपये सुरेश को देते हुए बोला, "देख दोस्त! ये मेरी ओर से दीपावली की भेंट है तुम्हारे लिए। मना मत करना। जब हम दोनों दोस्त खुश रहेंगे, तभी त्योहारों का मज़ा भी है।" सुरेश के मना करने पर भी मनीष ने उसकी जेब में रूपये डाल दिए और पुनः मिलने की बात कहकर दोनों अपने-अपने रास्ते चल पड़े। 
सुरेश इन रूपयों से माँ व अपने लिए जरूरी कपड़े, दीपावली की मिठाई तथा दीये खरीदकर घर पहुँचा। सुरेश का लाया सामान देख माँ आश्चर्यचकित हो उठी। माँ के पूछने पर उसने सारा हाल बता दिया। सायंकाल मनीष ने फोन पर सुरेश को बताया कि, "वह आज अत्यन्त प्रफुल्लित मन से दीप से दीप जलाकर दीपावली का आदर्श त्योहार मना रहा है।" सुनकर सुरेश बहुत खुश हुआ।

#संस्कार_सन्देश -
सच्चे अर्थों में त्योहारों का महत्व तभी है, जब हम किसी जरूरतमन्द या असहाय की मदद करते हैं।

कहानीकार-
#दीवान_सिंह_कठायत(प्र०अ०)
रा० आ० प्रा० वि० उडियारी बेरीनाग

✏️संकलन
📝टीम #मिशन_शिक्षण_संवाद
#दैनिक_नैतिक_प्रभात

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