मजदूर हूँ मैं, मजदूर हूँ

मजदूर हूँ मैं, हाँ मजदूर हूँ,

मजबूर नहीं मैं, मजबूर नहीं हूँ,

मेहनत से नहीं घबराते,

खून पसीना बहाते हैं,

तब शाम को रोटी खाते हैं,

चैन की नींद हमें आती है,

पत्थरों पर भी सो जाते हैं

माटी में खेले बच्चे मेरे हैं।।

उनको देख हम खुश हो जाते,

मेहनत से हम नहीं घबराते,

तब हम रोजी रोटी पाते हैं।।

मजदूर हूँ मैं, हाँ मजदूर हूँ

मजबूर नही मैं मजबूर नही हूँ।।

ऊँचे-ऊँचे महल दुमहल बनाते,

खुद झोपड़ पट्टी में रह लेते।

आंधी पानी गर्मी सब सहते

थोड़ा सा पाकर खुश रहते।।

छेनी, तसला, फावड़ा और हथौड़े,

ये उनके प्रिय शस्त्र संग रहते।

जीवन भर मजदूरी करते,

इसको अपनी किस्मत समझते।।

मजदूर हूँ मैं, हाँ मजदूर हूँ,

मजबूर नही मैं, मजबूर नही हूँ।


रचयिता

माधुरी पौराणिक,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय हस्तिनापुर,
विकास खण्ड-बड़ागाँव,
जनपद-झाँसी।



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