वर्ल्ड मेन्सटुअल हाईजीन डे

औरत हूँ मैं, 

मुझको औरत ही रहने दो,

कुछ तुम कहो मुझसे,

कुछ मुझको भी कहने दो,


अगर मैं दर्द ना सहती,

तो भगवान भी जन्म ना पाते,

चुप्पी को ही आज मुझे है तोड़ना,

नकारात्मकता भी है छोड़ना,

सामाजिक कलंक हूँ मैं पाँच दिनों तक,

ये रूख़ भी हवा का है मोड़ना,


कैसे सहूँ ये कुण्ठा?

कैसे तोडूँ बेड़ियाँ?

अपवित्र हूँ मैं, अछूत हूँ मैं,

ये मत कर, वो मत कर,

अब ये ताने मैं सह नही सकती,

अब चुप मैं रह नहीं सकती,


औरत हूँ मैं, हाँ औरत हूँ मैं,

मुझे औरत ही रहने दो,

कुछ तुम कहो,

कुछ मुझे भी कहने दो,

क्यूँ कुंठित हो चुके हैं समाज के विचार?

क्या इस रोग का नहीं होना चाहिये उपचार?

एक प्रश्न है पूछ रही,

तुमसे वही अशुद्ध, अपवित्र नारी,

अगर मैं दर्द सहना बन्द कर दूँ,

तो क्या तुम वंश बेल चला पाओगे?


नारी हूँ मैं, 

मुझको नारी ही रहने दो,

कुछ मेरी भी सुन लो,

आज मुझे कहने दो,

ये चार बूँद रक्तस्राव देखकर,

बनाते हो तुम मेरा उपसास,

ऐसा करके क्या पाप हो करते?

क्या तुमको है अहसास?


सृष्टि सृजनकर्ता हूँ मैं,

मुझको वही माँ ही रहने दो,

आज मेरे दिल की सुन लो,

मत रोको, मुझे भी आज कहने दे,

किशोरावस्था की निशानी,

विवाहिता के लिये वरदान,

फिर भी मैं अपवित्र,

कैसी है ये विडम्बना?


सशक्तीकरण का है दौर,

लेकिन मेरे लिए कहाँ है ठौर?

ऐ! समाज देखकर तेरी सोच विकृत,

अधरों की मेरी मुस्कान भी हो गई विस्मृत,

अंधविश्वास को कब छोड़ोगे?

मेरी बेड़ियाँ कब तोड़ोगे?

मैं बेटी हूँ, बहन हूँ और माँ हूँ,

मेरी पीड़ा को समझो,

दर्द मुझे ना अब सहने दो,

तुम्हारी अर्द्धांगिनी हूँ मैं,

मेरी सुनो मुझे कहने दो,


रचयिता 

ब्रजेश सिंह,

सहायक  अध्यापक, 

प्राथमिक विद्यालय बीठना, 

विकास खण्ड-लोधा,

जनपद-अलीगढ़।



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