ग्रीष्म का संदेश

ग्रीष्म अपने चरम को छू लेना चाहता है। तापमान की नित बुलन्दियाँ इसकी जवान होती हसरतों का आइना है। धधकती चालीसा (40℃ तापमान)  के आगोश में जीव - जन्तु, पशु- पक्षी ही नहीं मानव तक भी व्याकुल और परेशान हैं। बाग - बगीचे, ताल-तलैया सब मानो सूखने के लिए अभिशप्त हैं, बेबस हैं। वर्षा काल की प्रतीक्षा में ये सब अपने अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। प्रखर मार्तण्ड किसी वीर योद्धा की तरह अपने उदयकाल से अस्तकाल तक अपनी किरण बाणों से सबको मर्माहत किए है। बरगद, पीपल और पाकड़ की छाया मानो तापमान से त्रस्त सभी पशु- पक्षियों और मनुष्यों के लिए आश्रय स्थल बन गयी है। इन विशालकाय वृक्षों की यह सहृदयता और शालीनता इनकी भद्रता का परिचायक है और इनके प्रति सम्मान को बढ़ाती है। 
दूर खड़े अमलतास और गुलमोहर के पेड़ों पर अनायास ही विहंगम दृष्टि जाती है। इनकी अलमस्त अदाएँ, इनकी शोख़ी मानो सबको मुँह चिड़ा रही है। अमलतास सबसे बेखबर होकर अपनी पीत- वल्लरियों से लदा झूम रहा है और गुलमोहर भी अपने वितान को रक्ताभ पुष्प -गुच्छों से मंडित कर निर्लिप्त भाव से खड़ा है। मानो ये आज भी स्वर्ग की यादों में खोया अपने अतीत में डूबा है।

     मेधा का ऊर्ध्वाधर विस्तार भी इनके दिए जीवन- संदेशों को छू नहीं पा रहा है। ये स्वान्त सुखाय का संदेश देना चाहते हैं या ये अपनी दृढ़ जीवन शक्ति का उद्घोष करते हुए ग्रीष्म को ललकार रहे हैं। विषम परिस्थितियों में भी इनका ये वैभव सभी को चौंधिया रहा है, ललचा रहा है और संघर्षरत रहते हुए अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उकसा रहा है कि हमारे जीवन में भी एक दिन बसंत जरूर लौटेगा। 

        कई घन्टे दिन बीत जाने के बाद हवाएँ सौर्य तापकुण्ड के भँवर से छूटकर भागी हैं। झुलसती लू आश्रय की खोज में बदहवास होकर दौड़ रहीं हैं। पेड़ अपनी पत्तियाँ हिला - हिलाकर उसे अपने से दूर कर रहे हैं और लोगों ने अपने घरों के सब खिड़की- दरवाजे बंद कर लिए हैं। झुलसते हुए को गले लगाए भी कौन?  शीतल चाँदनी भी इनकी दग्धता को शायद कम न कर सके। ग्रीष्म का रौद्र रूप जारी है। सभी भयाक्रांत हैं। ये हवाएँ ग्रीष्म की इस भयावहता का संदेश सागर तक पहुँचाने के लिए दौड़ रहीं हैं। सागर को इनका करूणास्पद संदेश मानो अब मिल गया है। अब वहाँ हलचलें तेज हो रही हैं। मानसूनी योद्धा अपने लाव-लश्कर की तैयारी कर रहा है। जब तक ये हवाएँ समुद्र का संदेश लेकर नहीं लौटती तब तक ग्रीष्म का ये कहर यूँ ही जारी रहेगा। शीघ्र ही प्रकृति फिर एक घमासान की गवाह होगी। तडित झंझा, वज्रपात, मूसलाधार बारिश और उफनता जलसैलाब। प्रकृति का यह संघर्ष सनातन है और ये  हवाएँ यह संदेश दे रहीं हैं कि जिन्दगी में हाथ पर हाथ रखकर बैठने से जिन्दगी में बसंत नहीं आते। जीवन उसके  लिए उपलब्धि है जिसने कष्टों पर विजय पायी है। जो विषम परिस्थितियों से तब तक जूझे हैं जब तक वे अनुकूल नहीं हो गयीं हैं। विजेता का खिताब उन्होंने ही पाया है संघर्ष जिनके जीवन का अनिवार्य हिस्सा है। 

लेखक
प्रदीप तेवतिया,
हिन्दी सहसमन्वयक,
विकासक्षेत्र-सिम्भावली,
जनपद-हापुड़।


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