पिता/ परमपिता

पिता मेरे थे इक जो मुझको समझते,
मेरे हित में रत अपनी परवाह न करते।
जमाना कहे बेटियाँ हैं तुम्हारी,
वो मुझे दो बेटों के बराबर समझते।

हूँ समर्थ मैं संतति समय शक्ति धन से,
मगर रिक्त हूँ खो पिता तुमको मनसे।
कभी सुदूर दुखित हो आसमां देखती हूँ,
तुम्हारी छवि आशीष छलके गगन से।

निश्छल दुलारा मुझे बिन दिखावा,
सत्यता की दी शिक्षा झूठ-छल त्यागा सारा।
छल दिखा जब जमाने में बहरुपियों में,
याद आई वो मूरत जिन पर गर्व था हमारा।

वो कहते कि छोड़ो न सत्य को कभी भी,
क्षण में समय बदलता सत्य साथ दे तभी भी।
हो न विचलित रहो डटे अडिग राह पर ही,
मारग पर चले तो गिरोगे न कभी भी।

बहन भाई के रिश्ते धोखे थे हमारे,
मिला स्वार्थीपन निभाऐ लेकिन सारे।
बदलती जरुरत समय लक्ष्य सबका,
हित में रत आप ही सिर्फ़ रहते थे हमारे।

करुँ क्या बयाँ शब्दावली ही नहीं हैं,
जमाने में अब कोई तुम जैसा नहीं हैं।
दम्भ छल कपट भरे सब अकड़े ही जाते,
तुम्हारी सी शिक्षा संस्कार कहीं-कहीं हैं।
           
रचयिता
श्रीमती नैमिष शर्मा,
बी0आर0पी0,
विकास खंड-मथुरा,
जिला-मथुरा।
उत्तर प्रदेश।

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