प्रतियोगिता की सार्थकता कैसे हो

हमारे विद्यालय का एक छात्र, जो ब्लॉक स्तरीय खेलकूद प्रतियोगिता में 100 मीटर दौड़ में प्रथम आया, जनपद स्तर पर पाँचवें स्थान पर रहा।

अगले दिन कक्षा में एक बहुत अच्छा छात्र किसी बात पर बोला कि "सोहिल तो हार गया।" 

तब मैंने कहा कि तुम तो बहुत बार गाते हो कि "कोशिश करने वाले की कभी हार नहीं होती", फिर आज सोहिल को हारा हुआ कैसे बता रहे हो।

वास्तव में तो, भरपूर कोशिश करने वाला हर प्रतिभागी जीतता है। 

(फिर चिंतन आगे चला)

क्या ज़रूरी है कि प्रतिभा प्रदर्शन में प्रतियोगिता ही करायी जाए? क्योंकि समाज की मानसिकता (जो हमारे मनोविज्ञान को भी प्रभावित करती है) के अनुसार तो प्रतियोगिता के अंत में सिर्फ प्रथम आने वाला या पुरस्कार पाने वाला ही खुश रहता है। मायूसी ज़्यादा प्रतिभागियों में फैलती है।


क्या प्रतिभा प्रदर्शन का ऐसा format नहीं हो सकता, जिसमें मेहनत और जज़्बे से प्रतिभाग करने वाला हर प्रतिभागी विजयी मुस्कान लेकर निकले? अर्थात विजेता का निर्धारण victory point तक पहुँचने से नहीं, उस रास्ते को नापने में लगी शिद्दत से हो।
क्योंकि इस दुनिया में जब सभी लोगों की race के starting points ही समान नहीं हैं तो victory point समान रखना भी सही नहीं है।

कोई 2 से चलकर 7 तक पहुँच रहा है
कोई 6 से चलकर 10 तक पहुँच रहा है
कोई 11 से चलकर 20 तक पहुँच रहा है

इन्होंने यह दूरी जीवन की किन परिस्थितियों में नापी, इसका निर्धारण करना क्या आसान है?

हो सकता है, फर्क का कारण जन्मजात प्रतिभा, पारिवारिक और सामाजिक विषमताएँ ही हों और लगन, शिद्दत और मेहनत की दृष्टि से सभी समान हों और सभी विजेता कहलाने योग्य हों, क्योंकि फर्क पैदा करने वाले उक्त factors प्रायः अपने हाथ में नहीं होते।

अंततः मुझे लगता है कि प्रतियोगिता की शैली में बदलाव मनोविज्ञान की माँग है और शैली ऐसी हो जिसमें अपनी ओर से भरपूर प्रयास करने वाले हर प्रतिभागी का हृदय अंत में भी प्रफुल्लित ही रहे और वह प्रतियोगिता के दौरान भी number game का तनाव न लेकर, उन क्षणों का भी आनंद ले।

आखिर असली आनंद सिर्फ मंज़िल पर थोड़े ही है, रास्ते भी तो गुलज़ार रहें।

लेखक
प्रशान्त अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
ज़िला-बरेली (उ.प्र.)

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