वर्टिकल फारेस्ट: बालकनी और छतों पर लहलहाता जंगल

दियों से ही मानव जीवन का प्रकृति के साथ अन्योन्याश्रित जीवन्त मधुमय सम्बंध रहा है। यही कारण रहा है कि विश्व की नदी-घाटी सभ्यताएँ भी नदियों के तट और अरण्य के समीप ही विकसित हुई थीं। संत तुलसीदास ने भी ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा; पंच तत्व यह बना शरीरा’ के माध्यम से प्रकृति के इन पाँच महत्वपूर्ण घटकों से जीवन निर्माण की बात कही थी। कहने का यही आशय है कि मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के सह-सम्बंध से ही प्राणि मात्र का जीवन न केवल निर्मित होता है बल्कि उन्हीं के आधार पर संचालित भी होता है। प्राचीनकाल में ऋषि-मुनियों के आश्रम और आचार्यों के गुरुकुल भी सरिताओं के किनारे एवं जंगल के बीच ही स्थापित हुआ करते थे। वे एक प्रकार से संदेश देते थे कि यदि मानव  को सुख और संतुष्टिमय जीवन जीना है तो उसे प्राकृतिक उपहारों और मानवेतर प्राणियों के साथ सह-जीविता के सिद्धान्त पर चलकर ही जीया जा सकता है और खुशी की बात यह थी ऋषियों के इस मौन संदेश को मानव समाज ने सहजता से स्वीकार भी किया था। तभी तो प्रत्येक गेह में नेह के प्रतीक वृक्ष बहुलता से रोपित और पोषित किये जाते रहे थे। ‘एक वृक्ष दस पुत्र समान’ की लोक अवधारणा का उदय भी मानव और जंगल की मित्रता एवं सह-अस्तित्व के सिद्धान्त पर ही हुआ था। पिछली शताब्दी तक समाज जीवन में फलदार पौधारोपण को पुण्य और वृक्ष विनाश को पापकर्म समझा जाता रहा है। राजस्थान में विश्नोई समाज का वृक्षों के प्रति प्रेम और बलिदान विश्व विश्रुत है जिनसे प्रेरणा प्राप्त कर ही उत्तराखंड में ‘चिपको आंदोलन’ चला और सफल हुआ। लेकिन आधुनिक मानव सभ्यता व्यक्तिवादी चिंतन से प्रभावित है, इस कारण अपने सामाजिक कर्तव्य, दायित्व और संवेदना से परे होकर भोग और केवल भोग के पीछे भाग रही है। वह प्रकृति का संतुलित दोहन नहीं बल्कि शोषण पर आमादा है। इस पीढ़ी के लालच ने प्रकृति का विनाश किया है। जंगल काटे, नदियों के स्वच्छ जल को गंदा किया, वायु प्रदूषित की, पहाड़ों को खोद डाला और अंतरिक्ष को भी कचरे से भर दिया। 

प्रकृति से जब तक मानव का तादात्म्य बना रहा तब तक मानव सुखपूर्वक जीता रहा। लेकिन जब से मानव मन में प्रकृति से अधिकाधिक प्राप्त करने और बदले में कुछ न देने का भाव घर गया तब से विकृति पैदा हुई। जंगलों के विनाश से प्रकृति के फेफड़े बीमार हो गये और जैव विविधता एवं प्राकृतिक चक्र असंतुलित हुआ। औद्योगिकीकरण एवं शहरीकरण से हुए पर्यावरण विनाश की स्थिति का अंदाजा दुनियाभर में हुए शोध एवं सर्वेक्षणों से स्पष्ट है कि पिछले पच्चीस सालों में ही भारत के क्षेत्रफल का लगभग डेढ़ गुना जंगल मानव की भोगलिप्सा की भेंट चढ़ चुका है। ऑक्सीजन के स्तर में हो रही निरन्तर कमी और हवा में घुलते जा रहे जहर ने ही मनुष्य को विनष्ट हुई वन सम्पदा की क्षतिपूर्ति के लिए सोचने एवं कुछ नया करने को मजबूर किया है। शहर के अन्दर जमीन के अभाव में विकल्प के रूप में बहुमंजिली इमारतों केे छज्जों, छतों और बालकनी में जंगल उगाने की कला विकसित की गई जो ‘वर्टिकल फारेस्ट’ के नाम से लोकप्रिय हो रही है। 

हालाँकि मकानों की छतों और छज्जों में पहले भी पौधारोपण कर घरों को हरा-भरा रखने का प्रयास किया जाता रहा है पर वह केवल शौकिया स्तर पर था, जिसे ‘रूफ गार्डेन’ नाम से जाना जाता रहा है और जिसमें बहुत छोटे पौधे और बेलें ही रोपित की जाती रही हैं। लेकिन ‘वर्टिकल फारेस्ट’ वैज्ञानिक अवधारणा पर आधारित एक क्रियाशील प्रेरक माॅडल है जो मानव और प्रकृति के सह-अस्तित्व एवं पुरातन सम्बंधों की नवल व्याख्या है।
वायु प्रदूषण से मुक्ति ही ‘वर्टिकल फारेस्ट’ की वैचारिक पृष्ठभूमि है क्योंकि प्रत्येक वर्ष दुनिया भर में लाखों लोग प्रदूषित वायुू के कारण काल के गाल में समा रहे हैं। तो वायु शुद्धिकरण के लिए वैज्ञानिकों, पर्यावरणचिंतको एवं वास्तुकारों के गम्भीर चिंतन-मनन से उपजे ‘वर्टिकल फारेस्ट’ बनाने का विचार सर्वप्रथम 2009 में इटली के एक वास्तुकार स्टेफानो बोएरी ने प्रस्तुत किया था। ‘वर्टिकल फारेस्ट’ के अन्तर्गत ऐसी खास बहुमंजिली इमारतों का निर्माण किया जाता है जिसके कमरों, छज्जों एवं खुली छतों में पेड़-पौधे लगाये जाते र्है जो शहरी वायु को शुद्ध कर उसकी गुणवत्ता बेहतर कर सकें। 
स्टेफानो बोएरी ने ही दुनिया का पहला ‘वर्टिकल फारेस्ट’ इटली के मिलान शहर में 2014 में तैयार किया जिसमें 110 एवं 76 मीटर ऊंचे क्रमशः 26 एवं 18 मंजिलों वाले सौ से अधिक अपार्टमेंटयुक्त ‘टोरे ई’ एवं ‘टोरे डी’ नामक दो आवासीय टावरों में पचास प्रजातियों के 10 से 20 फीट ऊँचाई वाले 500 बड़े वृक्ष, 300 छोटे वृक्ष, 5,000 झाड़ियाँ और 11,000 अन्य पौधे लगाये। हालांकि व्यावहारिक तौर पर यह एक जटिल प्रक्रिया थी। भवन जंगल का भार वहन कर सकें और वृक्ष इतनी ऊँचाई पर तेज हवा के प्रवाह में टूटे-उखड़ें नहीं। इसलिए वास्तुकार एवं वनस्पतिविद लौरा गट्टी के नेतृत्व में एक टीम ने तीन साल तक गहन शोध कर भवनों मे लगाई जा सकने वाली स्थानीय वृक्ष प्रजातियों की पहचान और चयन किया जो न अत्यधिक भारी हो और न ही बहुत हल्की। इन वृक्षों की मजबूती एवं लचीलेपन का परीक्षण एक तेज हवादार सुरंग में विशेषज्ञों की देखरेख में हुआ। साथ ही इमारतों की डिजायन भी तदनुरूप निश्चित एवं विकसित की गई। स्टेफानो बोएरी की ही देखरेख में एशिया का पहला ‘वर्टिकल फारेस्ट’ चीन के जियांग्सू प्रान्त में 200 एवं 108 मीटर ऊँचे दो टावरों में विकसित किया जा रहा है जो 2019 के मध्य तक तैयार हो सकेगा। इन्हीं के निर्देशन में नीदरलैंड में दुनिया का तीसरा ‘वर्टिकल फारेस्ट’ जुलाई 2019 तक पूरा होने वाला है। ये जंगल जहाँ शुद्ध वायु का उत्सर्जन करते हैं वहीं कार्बनडाई आॅक्साईड का अवशोषण भी। इसके साथ ही ये सड़कों की धूल से बचाते हैं और तेज धूप एवं कड़ी ठंड से भी। एक प्रकार से ये मानव के रक्षा कवच के रूप में अपनी भूमिका निर्वहन् कर रहे हैं। 
कह सकते हैं कि ‘वर्टिकल फारेस्ट’ एक नूतन फलक है जिसमें मानव द्वारा प्रकृति के शोषण के कथा-चित्र पूरी हरीतिमा और आभा के साथ पश्चाताप के रूप में अंकित हैं। भवनों में खुशी से झूमते-लहलहाते जंगल और खिलखिलाते सुमनों में सुखद भविष्य की संभावना का सूरज नित मुस्काता है और वृक्षों की जड़ों में मानव-मन के प्रायश्चित के आँसू हैं और जिसमें आने वाली पीढ़ी के लिए मौन संदेश है कि यदि जंगल नहीं बचे तो हम भी नहीं बचेंगे।

लेखक शिक्षा एवं पर्यावरणविद् हैं। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक बदलावों, आनन्ददायी शिक्षण, सामाजिक एवं प्राकृतिक मुद्दों पर सतत् लेखन एवं प्रयोग करते हैं।

लेखक
प्रमोद दीक्षित ʺमलयʺ
सह-समन्वयक - हिन्दी,
बीआरसी नरैनी , जिला - बांदा

79 ⁄ 18‚ शास्त्री नगर‚
अतर्रा – 210201‚ जिला– बाँदा‚ उत्तर प्रदेश
Mob. 09452085234
email :  pramodmalay123@gmail.com

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