शिक्षा का अर्थ डिग्री पाना भर तो नहीं है

शिक्षा सदैव से ही समाज उपयोगी ज्वलंत मुद्दा रहा है। पूरे विश्व के शिक्षाविद अपने अपने तरीके से शिक्षा के अर्थ, शिक्षा देने के तरीके और शिक्षा के परिणामों को परिभाषित करते रहे हैं। पर अभी भी हम उस शिक्षा पद्धति को नहीं खोज पाये हैं जो मनुष्य का सर्वांगीण विकास करने में अपनी भूमिका का सही-सही निर्वहन कर सकी हो। विकसित, विकासशील और अविकसित देशों के लिए अपनी वर्तमान परिस्थितियों के हिसाब से लोगों को शिक्षित करने का अलग-अलग उद्देश्य नजर आता है और यही शिक्षा को मानव विकास के उसके मूल उद्देश्य से अलग करने का सबसे बड़ा कारण भी है। अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक वर्गों में भी शिक्षा का उद्देश्य अलग-अलग होता है। विकसित राष्ट्रों में शिक्षा की गुणवत्ता प्रमुख उद्देश्य है वहीं अरब सहित कई मुस्लिम राष्ट्रों में धार्मिक शिक्षा के द्वारा लोगों को धर्म के प्रति ज्यादा कट्टर बनाना उनका उद्देश्य नजर आता है क्यूँकि इन अरब जैसे राष्ट्रों में रोजगार के अवसर सहज रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध होते हैं और लोगों को रोजगार के लिए शिक्षा लेने की मनोदशा बचपन से नहीं होती है। जापान जैसे देश अपना ध्यान छात्रों को अधिक तकनीकी ज्ञान देकर ज्यादा कुशल तकनीकी कामगार तैयार कर उद्योगों को आर्थिक रूप से मजबूत बनाने में लगाते नजर आते है जिससे विश्व समुदाय में वह अधिक उन्नत उपकरणों से बाजार पर काबिज हो सके। जबकि भारत जैसे प्रगतिशील राष्ट्रों में रोजगार की समस्या के चलते लोगों का ध्यान रोजगारपरक विषयों का अध्ययन कर बेहतर रोजगार हासिल करना भर है।            
भारत में अधिकतर लोगों का मानना है कि शिक्षा केवल इसलिए जरूरी है ताकि व्यक्ति पढ़ लिखकर कुछ बन जाए और बच्चे के जन्म लेते ही उसके परिवार के लोग उसे डॉक्टर, इंजीनियर या अफसर बनाने की घोषणा कर देते हैं।  यह कुछ बनने की कल्पना उस व्यक्ति की हैसियत के हिसाब से होती है। डॉक्टर किसी भी कीमत पर अपने लड़के को डॉक्टर ही बनाना चाहता है ताकि उसके उपरांत उसका पुत्र उसके नर्सिंग होम को उत्तराधिकारी के रूप में सम्हाल सके वहीं गरीब व्यक्ति क्लास 3 और क्लास 4 की नौकरी पाने को ही संतुष्टि मानता है, बड़े व्यवसायी अपने लड़कों को केवल इतना शिक्षित करना चाहते हैं जितने में वह कारोबार आसानी से सम्हाल सके।

   वास्तव में किसी व्यक्ति के जन्म लेते ही उसके माता-पिता उसे एक अच्छा इंसान बनाने की बजाय उसे एक कमाऊ इंसान बनाने का सपना देखने लगते हैं जिसके लिए एक महँगे विद्यालय में कठिन पाठ्यक्रम और दुरूह विषयों के साथ उत्कृष्ट श्रेणी की मार्कशीट आवश्यक होती है। बालक के प्राकृतिक शारीरिक और मानसिक विकास की बजाय समस्त ध्यान लक्षित नौकरी के लिए जरुरी विषयों में कुशलता हासिल करने पर ही केंद्रित हो जाता है जिसके कारण अबोध बालक का शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध होने लगता है। अभिभावक की सम्पूर्ण चिंता उसके भविष्य में अर्थोपार्जन की संभावनाओं पर केंद्रित होने से वह कभी भी अपने बच्चे के अंदर छिपी विशेष प्राकृतिक विशिष्टता को पहिचान ही नहीं पाता है और अंततः वह अपने बालक को मानवीय मूल्यों से हीन एक सरकारी या निजी कंपनी का नौकर बनाकर इस समाज में छोड़ देता है।
       राज्य सदैव अपने नागरिकों को कुशल कामगार के रूप में ही तैयार करना चाहते हैं इसलिए वह एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था का ढांचा तैयार करते हैं जिससे राज्य की आवश्यकता के हिसाब से कुशल नौकर तैयार हो सकें, जिन्हें वह राज्य की व्यवस्थाओं के अनुरूप विभिन्न पदों पर नियुक्त कर, नागरिकों पर नियंत्रण रखते हुए अपनी व्यस्थाओं का सञ्चालन कर सकें। इसी योजना के तहत ही छात्रों को उस इतिहास को पढ़ने को और उसकी परीक्षा में पास होने को बाध्य किया जाता है जिससे उसके जीवन को कोई बहुत अधिक व्यक्तिगत लाभ नहीं होता है। उसको मात्र भाषा के साथ अंग्रेजी जैसी भाषा भी जबरन रटवायी जाती है ताकि वह प्रशासनिक व्यवस्था में प्रभाव दर्ज करा सके पर 5 प्रतिशत सरकारी नौकरी में या निजी क्षेत्र में नौकरी का अवसर न मिलने पर यह भाषा उसके लिए बेकार हो जाती है। गणित, फिजिक्स और रसायन जैसे विषय कक्षा 8 के पाठ्यक्रम के बाद इतने क्लिष्ठ और दुरूह होते जाते हैं कि छात्र को उन्हें पढ़ने और समझने के लिए अतिरिक्त कोचिंग की जरूरत होती है और इन विषयों के आधार पर नौकरी न प्राप्त होने की दशा में जीवन में यह ज्ञान औचित्यहीन ही नजर आता है। यहाँ यह भी समझना आवश्यक है कि वर्तमान पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा, कला क्राफ्ट, शारीरिक शिक्षा, खेलकूद और व्यायाम, स्काउट गाइड, पर्यावरणीय शिक्षा, संगीत, बुनियादी शिल्प आदि विषयों को दोयम दर्ज़ा प्राप्त है क्योंकि अभिभावक की नजर में यह विषय मनुष्य को सरकारी नौकरी देने में आवश्यक सहायता नहीं देते। पर आपको ताज्जुब होगा कि यही वह विषय हैं जिनकी सहायता से एक बालक को मानवीय गुणों से युक्त अच्छे नागरिक के रूप में विकसित कर समाज को आदर्श रूप में विकसित करने की आधारशिला पाठशालाओं में रखी जाती है।
       वास्तव में वर्तमान समय में विद्यालय केवल राज्य की आवश्यकतानुसार आवश्यक कुशल कामगार विकसित करने के ट्रेनिंग सेंटर मात्र हैं और अभिभावकों की रूचि भी इन्हीं रोजगारपरक विद्यालयों और पाठ्यक्रमों में है इसलिए भविष्य में राज्य को अपनी मंशा के अनुरूप कामगार तो मिलते रहेंगे पर मानवीय गुणों से युक्त नागरिकों में लगतार कमी होती जाएगी। जिसके कारण भ्रष्टाचार अराजकता लूट खसोट की घटनाओं में गुणोत्तर वृद्धि भी लगभग तय है। बेहतर हो कि प्रारंभिक कक्षाओं में मानवीय मूल्यों के गुणों को विकसित करने की एक मजबूत कवायद राज्यों द्वारा प्रारंभ की जाए जिससे भविष्य में राज्यों को श्रेष्ठ नागरिक मिलना शुरू हो सकें।
       
लेखक
अवनीन्द्र सिंह जादौन,
इटावा


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