प्रकृति

विकास के आडम्बर से
        तरुओं के विनाश से
   अट्टालिकाओं के अट्टाहास से
          ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन- हाउस के प्रभाव से
        प्रकृति कराह रही है।।

 स्वार्थी प्राणियों के
     कुदरत के बनाये सन्तुलन को
           पल-पल बिगड़ते देख
स्वस्थ सुन्दर खुशी देने वाली
       प्रकृति कराह रही है।।

     हरियाली से मन मोहने वाले  जीवनदायक ऑक्सीजन                       देने वाले।
       ईश्वर प्रदत्त वृक्षों को
  अंधाधुंध कटते देख
              प्रकृति कराह रही है।।

चिड़ियों के मधुर कलरव से
    प्रेयसी को चाँद की चादनी से।
        नवनिहालों को टिमटिमाते
तारों की रोशनी से।
    जीवनदायनी गंगा को रवि की किरणों से।
      निर्धन असहायों को शीतल पवन के झोंको से।
     अन्नदाता को वर्षा के फुहारों से।
     वंचित होता देख
      प्रकृति कराह रही है।।

      वाहनों चिमनियों के उगलते
              ज़हरीले गैसों से।
बढ़ते पर्यावरण प्रदूषण से
       आग उगलते अल्ट्रवायलेट किरणों से।
       क्षरण होते ओजोन परत को देख
प्रकृति कराह रही है।।
 
कल-कल बहती नदियों में
   आनंद का गोता लगाता मानव
       चहचहाती चिडियों के मधुर ध्वनि में आसन लगायें मुनि।
      अधरों पर शबनम की बूँदों का रस लेता बचपन।
       उपवन में झील झरनों के नयनाभिराम ओझल होने से
    प्रकृति कराह रही है।।

रसायनों के प्रयोग से                           
विलुप्त हो रहें रंग-बिरंगे पशु पक्षी।
   खो रही गुलाबी ठण्डी शीतल बयार।
     हर्षित वसुधा हो रही बीमार।
          होते दूषित वातावरण से
 प्रकृति कराह रही है।।

आने वाली पीढियों को कैसे दें
     सुरक्षित भविष्य।
कहीं खो न दे..
     सूर्योदय अपनी लालिमा।
आसमान अपना नैसर्गिक नीलापन
        सफेदी ओढ़े आकाश में
टिमटिमाते तारे।
      विनम्रता की सीख देते
             फलों से लदे वृक्ष
कुदरत का तोहफ़ा शुद्ध जल
    प्राण वायु को खोता देख
          प्रकृति कराह रही है।।

कभी सूखा कभी सुनामी बाढ़ की।
 कभी भूकंप की विनाश लीला से
   चेत नहीं रहा है मानव
       सच तो यह है
प्रकृति कराह रही है।।

रचयिता
रवीन्द्र नाथ यादव,
सहायक अध्यापक,  
प्राथमिक विद्यालय कोडार उर्फ़ बघोर नवीन,
विकास क्षेत्र-गोला,
जनपद-गोरखपुर।

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