मन को भाये तुम

मन को भाये तुम हर बार
आखिर क्या किया तुमने ऐसा
जब देखती हूँ किसी को आपस में झगड़ते,
धर्म और सम्प्रदाय के नाम पर
याद आ जाते हो तुम
कहते हो कि बेकार है झगड़ना
मत झगड़ो
सब एक ही तो हो
सच!
फिर भा जाते हो मन को
जब देखती हूँ किसी पर होते अत्याचार
चाहें हो कोई बालक, निर्बल
या असहाय
याद आ ही जाते हो तुम
तुम्हारी ही तो बातें हैं न?
कि बद्दुआ में है वह ताकत,
जो नष्ट कर दे अत्याचारी का
सब कुछ
मैं ठगी सी सोचती रह जाती हूँ कि
क्या हो तुम!
कौन सी मिट्टी है तुम्हारी!
क्या समझ पाया तुम्हें कोई?
पर हाँ,
जो समझा, उसी के हो तुम
मैं समझी हूँ
फिर तुम भाये हो मन को!
इतना ही नहीं,
यहाँ जब घायल होता है कोई
हथियार से नहीं,
किसी की बोली से,
तो घाव लगता है ऐसा
जो नहीं भरा जाता
किसी भी औषधि से
और तब निकलती है अश्रु धारा
उन सजल नयनों में दिखते हो तुम
सीख तुम्हारी ही तो है
और सीखना उन्हें है,
जो करते हैं इंसानियत को शर्मिंदा
अपनी ज़बान से
क्यों नहीं बनाते वे अपने मन को तराजू का पल्ला
मैं विनती करती हूँ तुमसे
अवतरित हो जाओ फिर से
बड़ी ज़रूरत है आज तुम्हारी
मेरे, हमारे, हम सबके मन को
हर बार, बार-बार भा जाने वाले
 कबीर!

रचयिता
कादम्बिनी सिंह,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय फेफना,
शिक्षा क्षेत्र-गड़वार,
जनपद-बलिया,
उ०प्र०।

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