नकल में अकल
टोपी वाला टोपी लेकर,
रोज शहर को जाता।
बेच टोपियाँ अपनी सारी,
घर लौटकर आता।
एक रोज घर से निकला,
पर देर हो गई ज्यादा।
गर्मी के दिन आलस के,
बदला उसने इरादा।
पीपल के नीचे बैठ गया,
राह में जो था आता।
टोपी वाला टोपी लेकर,
रोज शहर को जाता।
नींद आ गई पुरुवाई में,
नाक लगी थी बजने।
फौज बंदरों की नीचे थी,
झटपट लगी उतरने।
नकल बंदरों को करना,
ठीक ढंग से आता।
टोपी वाला टोपी लेकर,
रोज शहर को जाता।
लगे खेलने टोपी लेकर,
हुई टोकरी खाली।
और नकल से टोपी को,
सिर पर अपने डाली।
नींद खुली तो दीख पड़ा,
हर बंदर पेड़ पे जाता।
टोपी वाला टोपी लेकर,
रोज शहर को जाता।
सिर से टोपी बंदर अपने,
रहे थे नहीं उतार।
टोपी वाला इसे देखकर,
करने लगा विचार।
आता बंदर कोई न नीचे,
कितना भी उन्हें बुलाता।
टोपी वाला टोपी लेकर,
रोज शहर को जाता।
नकल ही उसने बना लिया,
अपना अब हथियार।
अपने सिर की टोपी उसने,
फौरन दिया उतार।
ऊपर टोपी फेंका लेकिन,
लोक न कोई पाता।
टोपी वाला टोपी लेकर,
रोज शहर को जाता।
सभी बंदरों ने फिर टोपी,
नकल से नीचे डाला।
भरी टोकरी खुश होकर,
शहर चला टोपी वाला।
होता बहुत नकलची बंदर,
पर अकल नहीं लगाता।
टोपी वाला टोपी लेकर,
रोज शहर को जाता।
बेच टोपियाँ अपनी सारी,
घर लौटकर आता।
रचयिता
अरविन्द दुबे मनमौजी,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय अमारी,
विकास खण्ड-रानीपुर,
जनपद-मऊ।
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