विश्व बाल-श्रम निषेध दिवस

सपने सजाकर मन उसका हिंडोले खा रहा,

आज स्कूल में उसका नाम लिखा जा रहा।

क़िताबें, काॅपी पाकर हर्षाया है मन,

वह भी चाहता है अब जाना कुछ बन।।


हाथ में कलम-काॅपी का आना अच्छा लगता है,

कंधों पर बस्ता-किताबों का बोझा अच्छा लगता है।

रोज सवेरे यूनिफॉर्म पहनना उसको अच्छा लगता है,

उसको भी स्कूल जाना अच्छा लगता है।।


कुछ दिन तो सब अच्छा रहा,

खूब भरी सपनों ने भी उड़ान।

लेकिन उसकी राह देख रहा था,

कोई और ही नया जहान।।


पापी पेट था सबका भूखा,

घर में पड़ा था फाका और सूखा।

भूखी थी बहन, माँ और दादी,

भूखे तड़प रहे थे अपाहिज काका।।


उससे देखी ना गई सबकी मजबूरी,

अब उसका काम करना था जरूरी।

मजदूर बन गया लाचारी में देख वो अपने,

तोड़ने लगे दम अब उसके भी सपने।।


माँ भी उसकी रोती और बिलखती है,

क्या कर सकती है वह भी बेचारी?

दिन-रात वह कुढ़ती और सिसकती है,

आँचल में मुँह छुपाकर खूब तड़पती है।।


छुड़ाने पड़ते हैं कॉपी-पेन्सिल हाथ से, 

बेबस हो दो जून की रोटी के वास्ते।

कुंदाली और फावड़ा आ जाते हैं हाथ,

मजदूरी पर लग जाते है माँ-पापा के साथ।।


रचयिता 

ब्रजेश सिंह,

सहायक  अध्यापक, 

प्राथमिक विद्यालय बीठना, 

विकास खण्ड-लोधा,

जनपद-अलीगढ़।

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