पितृ दर्शन

जब-जब देखा आँखों में..

अचल, अविरल पर्वत था खड़ा,

शब्दों में भी कह न सकूँ..

तेरा वह कितना मौन बड़ा।

राह चाह की चला छोड़..

पग-पग जिम्मेदारियों से लड़ा,

घर को स्वर्ग बनाता वह..

ज़िद से जीत को रहा अड़ा।

हृदय अरविंद से कहता भी क्या..

बसंत बहार का कहाँ झड़ा,

"अर्थ" के धागों में उलझा..

संबंधों को मोतियों से जड़ा।

पाप पुण्य की गणना करते..

विराम देह सुख को देना पड़ा,

संतानों के सुख की खातिर..

सत्कर्मों से भरता घड़ा।

हृदय से छलकते प्रेम को....

आँखों से कभी दर्शाता नहीं ......

पिता तो बस पिता है ....

आशीष उनका व्यर्थ कभी जाता नहीं...


रचयिता 

सुकीर्ति तिवारी,

सहायक अध्यापक,

कम्पोजिट उच्च प्राथमिक विद्यालय करहिया, 

विकास खण्ड-जंगल कौड़िया,

जनपद-गोरखपुर।



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