पिता

भगवान हमसे जब खुश होते हैं,

              और चाहते हैं रहना साथ हमारे,

फिर सींचते हैं अपने वात्सल्य से,

           और पिता बन रहते हैं साथ हमारे।


पिता-जैसे बरगद का विशाल वृक्ष,

        जिसका पत्ता-पत्ता प्राणवायु देता,

जिसका घना साया रोक लेता धूप की चुभन,

जिसकी लंबी लटकती जड़ों का,

                          मैं हर पल सहारा लेता।


बाहर कितना द्वंद्व, कितनी आँधी,

  कहाँ महसूस होती उनको, जिन पर हैं उस वृक्ष के साये,

जब बने ख़ुद वही बरगद जो कभी आश्रित थे,

तब जाना क्या सहा उस वृक्ष ने बिन बोले बिन बताये।


पूरा जीवन वार दिया पाल्यों पर,

          निःस्वार्थ भाव  से  मुस्कान सहित,

माँ बोले कुछ ले लो खुद के लिए,

 आवश्यकता नहीं कह कर इनकार किया।


मुझमें झलकता आत्मविश्वास तुम्हीं हो,

            निःस्वार्थ हृदय का प्यार तुम्हीं हो,

सत्यवक्ता, निडर, मृदुभाषी गर मैं हूँ,

             तो इन सबका आधार तुम्हीं हो।

 

सिर्फ़ देना ही सीखा है पितारूपी वृक्ष ने,

    फ़र्ज़ हमारा, सिंचित करते रहें जड़ों को,

 कभी मुरझाने न दें, उनके चेहरे की निष्काम स्मित को,

निभाएँ अपनी हम ज़िम्मेदारी और करें गौरवान्वित अपने पूज्य को।


रचयिता

अंजली शर्मा,
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय फ़तेहपुर भादों,
विकास खण्ड-मुज़फ़्फ़राबाद
जनपद-सहारनपुर।

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