पिता का त्याग

खुद की खुशियाँ भूल के वो,

बच्चों में ही खुश हो जाते।

बिटिया की हँसी देख जो,

अपने सारे ग़म भूल जाते॥


लाचार कभी नहीं वो होता,

बस बच्चों के आगे झुक जाते।

कहने को तो बूढ़ा हो जाता,

पर घर का मुखिया वो कहलाते॥


एक उम्र का दौर पार करते ही,

घर के अन्दर कैद हो जाते।

दे दो थोड़ी खुशियाँ उनको,

जो जीवनभर वो त्यागते आते॥


घर की सच्ची नींव हैं वो,

जो रहने खाने को देते आये।

चार पैसे कम क्या कमाये,

वो तो दर-दर ठोकर खाये॥


मत भूलो एहसान है तुम पर,

जो तुमको धरती पर लाये।

नहीं तुम्हारा कोई नाम है,

जो तुम उनके बन न पाये॥


रचयिता
शिप्रा सिंह,
सहायक अध्यापिका,
प्राथमिक विद्यालय रूसिया, 
विकास खण्ड-अमौली,
जनपद-फतेहपुर।



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