लोकतंत्र के आँसू

लोकतंत्र के आँसू
आज सुबह साढ़े पाँच बजे से गाँव के चौराहे पर अलग- अलग रूप रंगों और आकार की विभिन्न गाड़ियों का आना- जाना इस तरह दिखाई दे रहा था। जैसे यह एक गाँव का चौराहा नहीं बल्कि किसी महानगर का व्यस्त चौराहा हो। बच्चों और उनके माता पिता की भीड़ भरा इन्तजार ऐसा था। जैसे किसी रेलवे स्टेशन पर अपनी गाड़ी का बेसब्री से इन्तजार करते लोग हों। कारण था एक माह के ग्रीष्म अवकाश के बाद विद्यालयों का पहले दिन खुलना। कुछ देर में दूर से आती हुई पीले रंग की एक बड़ी सी बस दिखाई दी। बस देखकर बच्चों और अभिभावकों के चेहरे खुशी से चमकने लगे। अभिभावकों ने अपने बच्चों के हाथ, बैग, पानी की बोतल और भोजन का टिफिन ऐसे पकड़ रखे थे कि कहीं ये छुटाकर भाग न जाएँ। कुछ मिनट में बस आकर खड़ी हुई। बस के ऊपर लाउडस्पीकर देशभक्ति के गीतों की धुन के साथ विद्यालय की विशेषताएं ऐसे बता रहा था जैसे यह दुनिया का श्रेष्ठतम विद्यालय हो और यदि इस विद्यालय में बच्चा एक बार प्रवेश पा गया तो वहाँ से पूर्ण संस्कारित होकर भारतीय संस्कृति का ज्ञानी बनने के साथ आई ए एस अधिकारी तो निश्चय ही बन जायेगा। इसी बीच बस के दोनों दरवाजों से यूनिफॉर्म से सुसज्जित दो व्यक्ति ऐसी तत्परता से उतरते दिखाई दिये जैसे कोई नौकर मालिक के आगे यस सर की मुद्रा में दिखाई देता है। उतरते ही उन्होंने अपने विद्यालय के बच्चों को चिन्हित कर बड़े सावधानी से बच्चों के सामान लेकर उन्हें ससम्मान प्रसन्न मुद्रा में बस में बैठाया। इसके बाद बस के दरबाजे बन्द होते हैं। बच्चों और अभिभावकों अपने हाथ हिला हिलाकर कुछ कह रहे थे शायद वह बाय- बाय कहने जैसे ध्वनि थी। जिनके बच्चे जा चुके थे उनके अभिभावक अपने को बड़े ही गौरवान्वित महसूस करते हुए घर वापस हो गये।
लेकिन वहाँ खड़े अन्य अभिभावकों के चेहरे से बच्चों को उस विद्यालय में न पढ़ा पाने का मलाल साफ झलक रहा था। इसके बाद कुछ देर में ही एक मिनी स्कूल बस आती हुई दिखाई दी। बस को देखकर फिर एक बार अभिभावकों और बच्चों में खुशी की लहर दौड़ चुकी थी। बस आकर रुकी इस पर भी स्कूल का प्रचार चल रहा था। इस बार बस से एक अस्त-व्यस्त सा व्यक्ति उतरा और चिल्लाकर बोला जल्दी करो, जल्दी करो बहुत देर हो रही है। अभिभावक अपने बच्चों को बस तक छोड़ देते हैं बच्चे स्वयं शोर मचाते हुए बस में चढ़ जाते हैं। बस आगे बढ़ती है तो फिर वही हाथ हिलाने वाला बाय- बाय शुरू  था।
कुछ देर में अन्य छोटी- छोटी गाड़ियाँ मैजिक, मैक्स्मो, टैम्पो और ऑटो आदि का आना शुरू हुआ लेकिन इस बार बच्चों के साथ कोई अभिभावक नहीं था, बच्चे स्वयं अपने बहन भाईयों को पकड़े और सम्हालते हुए गाड़ियों में बैठकर जाने लगे। यह सब नजारा देखते हुए अब हम भी वहाँ से चल दिए। जैसे ही पीछे मुड़े सहसा नजर छत पर खड़ी एक माता पर पड़ी जो अभी भी अपने हाथ को बड़ी ही उत्सुकता और प्रसन्नता से हिलाती जा रही थी। जैसे उसके जीवन में दिन के उजाले में देखा गया सपना पूरा हो गया हो कि मेरा बेटा भी गाड़ी में बैठकर गुड्डा सा सजधज कर गाँव से बाहर के स्कूल में पढ़ने जा रहा हो। जैसे ही हम आगे अगले दरवाजे के सामने बड़े तो देखा एक बच्चे की दादी, जो हमारी चाची थी। अपनी बहू और नाती को स्कूल भेजने के लिए समझा रही थी। लेकिन बच्चा कह रहा था अब हम नहीं पढ़ेंगे उस स्कूल में चाची का चिन्टुआ भी अब गाड़ी से बाहर पढ़ने जाने लगा है। रजुआ रोते हुए कहने लगा अम्मा अब हम नहीं जायेंगे गाँव वाले स्कूल में। वह देखो ऊपर चाची अभी भी छत पर हाथ हिला कर चिन्टुआ को बा- बाय कह रही है।
यह संवाद रजुआ की मम्मी दरवाजे की देहरी के सहारे खड़ी - खड़ी सुन रही थी। इतने में हमने भी चाची को बीच में टोकते हुए पूछ लिया। क्या बात है चाची? आज रजुआ क्यों रो रहा है। इतना सुनते ही दरवाजे पर लगभग रोने की अवस्था में खड़ी बहु अपने सपनों का दुख नहीं सम्भाल सकी और तेज स्वर में रो - रोकर अपनी बेबसी और गरीबी का बखान करने लगी। इसके साथ ही अपनी जिठानी के बच्चे के बाहर पढ़कर अच्छे भविष्य बनने और अपने बच्चे के काल्पनिक भविष्य के भय से भयभीत होकर तेज- तेज आँसू बहाने लगी। ये एक माँ के बेबस सपनों के आँसू देख कर ऐसा लगा। जैसे ये एक बेबस माँ के आँसू नहीं है ये तो हमारे लोकतंत्र के आँसू हैं जो हमारे भारतीय संविधान में अंकित समानता के सिद्धांत की लिखी हुई लाइनों को देख कर अपनी बेबसी पर बहा रहा हो।
एक बार तो एक माँ के बेबसी और विषमता के हाल देखकर मन व्यथित हुआ। लेकिन शीघ्र ही स्वयं को सम्भालते हुए बच्चे, बहू और चाची को समझाने की मुद्रा में आ गये। सभी को समझाते हुए मिशन शिक्षण संवाद के अनमोल रत्नों के सम्बन्ध में बताया और भरोसा दिलाया कि आप अब चिंता मत करो, शीघ्र ही गाँव और गरीब परिवार के बच्चों की शिक्षा के लिए मिशन शिक्षण संवाद से प्रेरित होकर अनमोल रत्न रूपी मसीहा आपके गाँव के विद्यालय में ही आयेगा। रत्न और मसीहा जैसे शब्द सुनकर चाची और बहू प्रसन्न होकर बोली कि अब होंगे हमारे भी सपने सच। इसके बाद सभी रजुआ को स्कूल भेजने की तैयारी में जुट गए।
कृपया ध्यान दें--
शिक्षक मित्रो हमने रजुआ और उसकी मम्मी से वायदा किया है यदि आप हमारी पोस्ट पढ़ रहे हों तो देश के प्रत्येक रजुआ के स्कूल को आदर्श स्कूल बना देना। हमने आप के विश्वास पर वायदा किया है। हमें भरोसा है आप हमारी लाज अवश्य रखेगें।
आपका सहयोगी
विमल कुमार
मिशन शिक्षण संवाद उ० प्र०

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