गीत-श्रृंगार
मन करता है रचनाकार की, रचनाओं के छन्द रचाऊँ।
सूरजस्वर्णिम, चाँदरुपहला, नीलाम्बर के नखत लखाऊँ।।
हिम गिरिवर की धवल श्रृंखला,
झरनें सरिता, बहती नदियाँ।
झाँड़ी तरुवर, बेल लताएँ,
पादप-पल्लव, पुष्पित-कलियाँ।
मन कहता है, नीली झीलों की चंचल लहरें दर्शाऊँ।।
प्राची में पर्वत के पीछे,
इंद्रधनुष के रंग सुहायें।
भावन पछुआ-पवन झकोरे,
सरसिज सरवर जल सहलाये।।
ऊषा जागे, राग भैरवी, सुमधुर ताने, गीत सुनाऊँ।।
सावन भादौं दिवस दुपहरी,
हरियाली से घिर जाती हैं।
ऋतु बसंत की संध्या रजनी,
खुशबू से तर हो जाती हैं।।
नख से शिख तक, प्रकृति को, अलंकार रस छंद सजाऊँ।।
गगन चूमते, पंख पखेरू,
पर जिजीविषा भू सहमी हैं।
सुखी शांत आनंद कहीं तो,
कूट मदन मद की गहमी है।।
लीलाधर की, लीलाओं पर,
भाव सुमन "निरपेक्ष"चढ़ाऊँ।
रचयिता
हरीराम गुप्त "निरपेक्ष"
सेवानिवृत्त शिक्षक,
जनपद-हमीरपुर।
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