ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर(बीईओ) ने गहने बेचकर भीख माँगते बच्चों को पढ़ाया

'मैं बच्चों को किसी कीमत पर भीख मांगते हुए नहीं देखना चाहती'

मैं (नगरथनम्मा) बंगलूरू के साउथ ब्लॉक-दो में काम करने वाली एक ब्लॉक एजुकेशन ऑफिसर हूं। फरवरी, 2012 की बात है, जब मैं अपने काम के सिलसिले में एक सर्वेक्षण कर रही थी। काम के दौरान मैंने देखा कि कई परिवार ऐसे हैं, जो सड़कों के किनारे बदतर हालत में जीवन यापन कर रहे हैं। हालांकि हमारे देश के लिए ऐसी स्थिति कोई नई बात नहीं थी। लेकिन उस सर्वेक्षण का काम ही कुछ ऐसा था, जिसने मुझे उन परिवारों के बारे में सोचने पर विवश कर दिया। मेरी सबसे बड़ी चिंता उन परिवारवालों के बच्चों को लेकर थी। मेरे दिमाग में उनके लिए कुछ करने का खयाल आया। शिक्षा विभाग से जुड़ी होने के नाते मेरे लिए सबसे सुलभ काम था उन बच्चों को शिक्षित करना।

मैंने अपनी ही जैसी सोच रखने वाले कुछ अन्य लोगों से संपर्क किया। उन्होंने मेरी बातों में दिलचस्पी दिखाई। हमने तय किया कि हम इन बच्चों के लिए बुनियादी शिक्षा की व्यवस्था करेंगे, जोकि आगे चलकर इन्हें स्कूल तक पहुंचाने में मदद करेगी। हमारा काम एक तरह से बच्चों और स्कूल के बीच पुल की तरह था। हमने बच्चों को कन्नड़ और अंग्रेजी वर्णमाला, कविताएं, गीत आदि सिखाना शुरू किया। साथ ही हमने उन्हें अनुशासन और नैतिक शिक्षा की भी जानकारी दी। यह काम कठिन रहा। उनके लिए यह अपेक्षित ही नहीं था कि कोई उन्हें इस तरह प्यार से पढ़ा भी सकता है। शुरू में बच्चे हमें एकटक देखते रहते। उस वक्त हमे अंदाजा हुआ कि गरीबी ने उन्हें केवल शिक्षा से ही वंचित नहीं रखा था। नए माहौल से अभ्यस्थ होने के बाद बच्चों ने चीजों को बड़ी तेजी से सीखना शुरू किया।
इससे हमारा विश्वास बढ़ता गया कि ये बच्चे स्कूल में जरूर पढ़ेंगे। लेकिन यहां भी दिक्कत थी। एक तो वैसे भी इनके मां-बाप इन्हें इसलिए भी स्कूल भेजने को राजी नहीं होते थे कि अगर ये स्कूल गए, तो सड़कों पर भीख मांगकर या गुब्बारे बेचकर थोड़े-बहुत पैसे कौन कमाएगा? इनकी कमाई परिवार के लिए मायने भी रखती थी। दूसरा, इन बच्चों के घरवालों को कोई स्थायी ठिकाना नहीं था। इस वजह से भी स्कूल जाना इनके लिए मुश्किल था।

यह सब जानते हुए भी मैंने बच्चों के परिवारवालों को मनाना जारी रखा। शत प्रतिशत तो नहीं, लेकिन हमें सफलता मिली। हमने कुछ बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाया। अब हमारी अगली चुनौती थी कि स्कूल में ये बच्चे दूसरों बच्चों की तुलना में किसी तरह कमतर न आंके जाएं। साफ-सुथरे कपड़े, अच्छी आदतें इसके लिए पहली जरूरतें थीं। मैंने इस पर काम किया। अपनी संस्था के माध्यम से मैंने लगातार इन बच्चों को वे चीजें मुहैया कराईं, जो इनके लिए  जरूरी थीं। जब बच्चों ने अपने स्कूली जीवन से तालमेल बिठा लिया और उन्हें पढ़ाई करने में मजा आने लगा, तब भी हमारी दिक्कतें कम नहीं हुईं।

कई परिवार अब भी अपने पाल्यों से वापस भीख मंगवाना चाहते थे। वे हमसे कहते कि बच्चों को पालने की जिम्मेदारी हमारी है और हमें इसके लिए पैसे चाहिए। मैंने उनकी समस्या को समझते हुए बच्चों के पोषण आदि के लिए भी मदद की। जब संस्था चलाने के लिए पैसे कम पड़ने लगे, तो मैंने अपने गहने तक बेच दिए। मैं बच्चों को किसी कीमत पर वापस भीख मांगते हुए नहीं देखना चाहती थी। मुझे खुशी है कि आज पच्चीस बच्चे अच्छे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं, जिसके पीछे मेरा वह अभियान है, जो मैंने शिक्षा के अधिकार के तहत प्राइवेट स्कूल प्रबंधन के खिलाफ चलाया था।
 -बीईओ नगरथनम्मा के विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।

साभारः- अमर उजाला 30-05-2018

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