इससे हमारा विश्वास
बढ़ता गया कि ये बच्चे स्कूल में जरूर पढ़ेंगे। लेकिन यहां भी दिक्कत थी।
एक तो वैसे भी इनके मां-बाप इन्हें इसलिए भी स्कूल भेजने को राजी नहीं होते
थे कि अगर ये स्कूल गए, तो सड़कों पर भीख मांगकर या गुब्बारे बेचकर
थोड़े-बहुत पैसे कौन कमाएगा? इनकी कमाई परिवार के लिए मायने भी रखती थी।
दूसरा, इन बच्चों के घरवालों को कोई स्थायी ठिकाना नहीं था। इस वजह से भी
स्कूल जाना इनके लिए मुश्किल था।
यह सब जानते हुए भी मैंने बच्चों के परिवारवालों को मनाना जारी रखा। शत
प्रतिशत तो नहीं, लेकिन हमें सफलता मिली। हमने कुछ बच्चों को स्कूल
में दाखिला दिलाया। अब हमारी अगली चुनौती थी कि स्कूल में ये बच्चे दूसरों
बच्चों की तुलना में किसी तरह कमतर न आंके जाएं। साफ-सुथरे कपड़े,
अच्छी आदतें इसके लिए पहली जरूरतें थीं। मैंने इस पर काम किया। अपनी संस्था
के माध्यम से मैंने लगातार इन बच्चों को वे चीजें मुहैया कराईं, जो इनके
लिए जरूरी थीं। जब बच्चों ने अपने स्कूली जीवन से तालमेल बिठा लिया और
उन्हें पढ़ाई करने में मजा आने लगा, तब भी हमारी दिक्कतें कम नहीं हुईं।
कई परिवार अब भी अपने पाल्यों से वापस भीख मंगवाना चाहते थे। वे हमसे कहते
कि बच्चों को पालने की जिम्मेदारी हमारी है और हमें इसके लिए पैसे चाहिए।
मैंने उनकी समस्या को समझते हुए बच्चों के पोषण आदि के लिए भी मदद की। जब
संस्था चलाने के लिए पैसे कम पड़ने लगे, तो मैंने अपने गहने तक बेच दिए।
मैं बच्चों को किसी कीमत पर वापस भीख मांगते हुए नहीं देखना चाहती थी। मुझे
खुशी है कि आज पच्चीस बच्चे अच्छे प्राइवेट स्कूलों में पढ़ रहे हैं,
जिसके पीछे मेरा वह अभियान है, जो मैंने शिक्षा के अधिकार के तहत प्राइवेट
स्कूल प्रबंधन के खिलाफ चलाया था।
-बीईओ नगरथनम्मा के विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित।
साभारः- अमर उजाला 30-05-2018
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