सुबक-सुबक कर धरती रोये

बंजर  होती  धरती  ऊसर, हरियाली  को  खा  गया 

कूड़ा-करकट प्लास्टिक, शहर के नाली को खा गया 


स्वांग-स्वांग फैला देखो, एसिड रेन जवानी को खा गया 

दरिया  सिमटी  नालों में, दूषित जल  पानी को खा गया


सुबक-सुबक  कर  धरती  रोये, भूकम्प  आये  बारम्बार 

छेड़छाड़ की प्रवृत्ति देखो, विरासत की निशानी को खा गया 


यश, कीर्ति, बखाने मानव, विनाश को विकास नाम दिया 

प्राण वायु को तरस रहे हम, धरा चूनर धानी को  खा गया 


जलजला  सूरज का कायम है, सात समन्दर भी रोता है 

दोहन करता मानव, शोर लोगों की जुबानी  को खा गया


रचयिता
वन्दना यादव "गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक,
विकास खण्ड-डोभी, 
जनपद-जौनपुर।

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