तरुणाई और पथप्रदर्शन

     प्रायः तरुण बालक बालिकाओं के साथ शिक्षण क्षेत्र के लंबे कार्यानुभव में मैने पाया है कि आज इन आयु वर्ग के बच्चों की मनःस्थिति तेजी से हो रहे सामाजिक बदलावों और सोशल मीडिया के सीधे प्रभावो के चलते अलग-अलग आभासों से गुजरा करती है या यूँ भी कह सकते हैं कि परिवेशीय बदलावों के विभिन्न प्रभावों से बच्चों की तरूणाई ही सर्वाधिक सुभेद्य है। अतः इन परिस्थितियों में एक शिक्षक के रूप में हमारी भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है।

     मेरा उच्च प्राथमिक स्कूल, प्राथमिक स्कूल से एक किलोमीटर की दूरी पर है। यहाँ जब बच्चे कक्षा छह में प्रवेश लेते हैं, तब उनमें अपने प्राथमिक स्कूल के छुटपन वाले परिवेश को छोड़कर यहाँ के नए किशोरवय परिवेश में आने और उसे अपनाने का कौतूहल भी बिल्कुल उसी तरह से हुआ करता है जैसा कि उनमें स्वयं के भी शारीरिक व मानसिक बदलावों के प्रति कौतूहल होता है। मैंने देखा है कि ये बालक बालिकाएँ मन में तरह-तरह के अनसुलझे सवालों के न जाने कितने ही बंद पैकेट्स लिए जवाबों की खोज में आस भरी निगाहों से सर्वप्रथम अपने घरेलू परिवेश की ओर ताकते हैं। चूँकि ग्रामीण क्षेत्रों में निम्न शैक्षिक परिवेश व रूढ़िगत सामाजिक ढाँचे के चलते बच्चों के मन में उठने वाले ये तमाम प्रश्न अपने सही उत्तरों तक नहीं पहुँच पाते और बच्चे बेचैन होकर इन जवाबों की खातिर हम उम्र दोस्तों की ओर रुख करते हैं। अब चूँकि इन किशोर किशोरियों के ये हमउम्र मित्र भी समझ के स्तर में उन्हीं के समकक्ष होते हैं सो इन मित्र समूहों की अधकचरी जानकारियाँ स्वस्थ प्रश्नों के संक्रमित उत्तर खोज लाती है जो की और भी घातक सिद्ध होते हैं।

     प्रायः एक शिक्षिका के रूप में, मैं प्रारंभ से ही यह कोशिश करती हूँ कि इन किशोरवय बच्चों से अधिकतम मित्रवत व्यवहार करूँ व उन्हें अपने साथ खुलकर बातें करने के लिए सहज कर लूँ। कुछ दिनों तक इन बच्चों को सहज कर लेने के बाद उनसे दोस्ताना बातचीत के क्रम में, मैं इन बच्चों के मन में चल रहे वैचारिक द्वंद्व तक झाँक पाती हूँ और इनकी मदद का प्रयास करती हूँ। मैंने पाया कि किशोरावस्था में आते ही इन बच्चों को यह अहसास मिलना शुरू हो जाता है कि उन्हें कुछ निश्चित सामाजिक मानकों के चलते अलग तरीके से ट्रीट किया जा रहा है। बेहद भावुक बातचीत के क्रम में तेरह साल के गोलू ने बताया कि अब मम्मी उसके रोने पर उसे सीने से चिपकाकर चुप नहीं कराती, दूर से चुप कराती हैं जबकि छोटे भाई को सीने से लगाकर चुप कराती हैं। गोलू को लगता है कि वो बड़ा होकर मम्मी से दूर होता जा रहा है। इसी तरह एक दिन चौदह वर्षीय अभय ने उदास होकर बताया कि "मुझे अब उछलकूद करने पर पापा डाँटते हैं और बार-बार कहते हैं कि अब तुम बच्चे नहीं रहे और जब भी मैं घर के बड़ों के बीच कुछ अपनी बात कहने जाता हूँ, तब भी डाँट देते हैं कि चुप बैठो! बड़े नहीं हो गए हो तुम..तो बताइए मैम कि मैं आखिर हूँ क्या? बच्चा भी नहीं, बड़ा भी नहीं...दरअसल मैं कुछ भी नहीं हूँ। घर में कोई मुझे प्यार नहीं करता,बकोई मुझे समझता नहीं है। सब मुझे ही डाँटते रहते हैं।"

    बच्चों में किशोरावस्था के ये मनोभाव उन्हें धीरे-धीरे स्वभाव से आक्रामक बनाने लगते हैं, जिसका दुष्प्रभाव हमारे शैक्षिक कार्यों पर भी पड़ने लगता है। बातचीत के दौर में एक दिन चौदह वर्षीय अंकिता ने बेहद मासूमियत से पूछा कि "मैम! क्या मासिक धर्म कोई गंदी चीज है? आज सुबह-सुबह ही अचार छू लेने पर दादी ने मुझे सबके बीच में डाँट दिया, मुझे बेहद बुरा लगा।" इसी तरह कई बालिकाओं ने ये बात साझा की कि उन्हें अब यह बखूबी महसूस होता है कि अब वे पहले की तरह अपने पापा के कंधे पर नहीं झूल सकती और न ही अब पिताजी या बड़े भैया उन्हें पहले की तरह दुलार से छूते या पुचकारते हैं क्योंकि दादी और मम्मी ने समझाया है कि अब मैं बड़ी हो गई हूँ।" अब उन्हें खिलखिलाकर हँसने पर डाँट पड़ती है, दुपट्टे का ध्यान देना पड़ता है और आसपास के घरों में आने-जाने पर भी तरह-तरह की रोकटोक है। आखिर मैं क्यों बड़ी हो गई मैम?


   

मेरे दोस्ताना व्यवहार में सहज हो जाने पर इन बच्चों ने ऐसे कितने ही मनोभाव मुझसे साझा किए। एक दिन तो कक्षा सात की तेरह वर्षीय छात्रा कोमल ने सीधे-सीधे ही अपनी बात रखी और पूछ बैठी कि "मैम पहले तो ऐसा नहीं था। अब तो क्लास मे किसी लड़के से हँसकर बोल भी दो तो दोस्तों में अलग ही खुसुर-फुसर और सुगबुगाहट शुरू हो जाती है कि बस करो दोनों में प्यार ही हो गया समझाने लगते हैं कि अब लड़का लड़की के हँसकर बात करने का मतलब उनके बीच प्यार होना ही है। उधर गाँव में मम्मी तक बात पहुँच जाती है और मम्मी तुरंत ही कड़े शब्दों में किसी भी लड़के से बात करना मना कर देती है..क्यों मैम, अब ऐसा क्या बदल गया है कि हम किसी लड़के से हँस बोल भी न सकें। सब तुरंत ही ये सब ही क्यों सोचने लगते हैं?"


   मैने महसूस किया कि इन किशोरवय बच्चों के मन मस्तिष्क के भीतर एक अलग ही तरह का युद्ध चल रहा होता है। इन बच्चों ने कक्षाओं में अपने अलग-अलग छोटे छोटे समूह बना रखे हैं। जिन मुद्दों पर उनका बचपना उन्मुक्त और खुला था अब खुसुर-फुसर में बदल चुका है। 

    अतः एक शिक्षक के तौर पर यह समझना आवश्यक है कि इस आयुवय के तरुण बच्चों को एक सुलझे व समझदार दोस्त की जरूरत है। एक ऐसा दोस्त जो सबसे पहले उन्हें इन सभी परिवर्तनों के प्रति सहज बनाए। उनकी आपसी खुसुर-फुसर की प्रवृत्ति से निजात दिलाते हुए उनके ऐसे हर प्रश्नों व कौतूहलों का सुलझा हुआ जवाब दे साथ ही उनकी विभिन्न मनोदशाओं को समझते हुए न सिर्फ उनके शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों या व्यवहारों के बारे में उपजे सवालों के लिए सही पथ प्रदर्शन करने में सहायता करे बल्कि उन्हें इन सभी के प्रति बिल्कुल सामान्य और सहज भी बनाए।शिक्षक द्वारा समुदाय स्तर पर भी इस बारे में बातचीत आवश्यक है।

   दरअसल किशोरवय, बचपन व युवावस्था के बीच की महत्वपूर्ण कड़ी है और एक समझदार शिक्षक अपनी सूझबूझ से इन बच्चों की तरूणाई के सुंदर मार्ग का प्रज्वलित दीप बनकर इस कड़ी को स्वर्णिम भविष्य सा चमकीला बना सकता है।


लेखक

पाठक अनीता कुमारी,

सहायक अध्यापिका,

उच्च प्राथमिक विद्यालय लखनों,

विकास खण्ड-ज्ञानपुर,

जनपद-भदोही।




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