विद्यालय में एक दिन...'अक्षरा'

आज सुबह-सुबह विद्यालय की चहारदीवारी के पास जैसे ही मैं पहुँचता हूँ तो देखता हूँ कि अक्षरा बड़े ध्यान से कुछ देख रही थी। अक्षरा पहली कक्षा में पढ़ती है। 'अरे अक्षरा! वहाँ क्या कर रही हो?' मैंने थोड़ा जोर से आवाज दी। अक्षरा भी कुछ कम नहीं थी वह भी उतनी ही आवाज में चिल्लायी, 'आती हूँ, अभी कुछ देख रही हूँ सर...थोड़ा धीरे बोलिये नहीं तो ये सब उड़ जाएँगे।' मैं चश्मे को थोड़ा सही करते हुए ध्यान से देखने का प्रयास किया तो देखा कि सारस के झुण्ड को अक्षरा बड़े ध्यान से देख रही थी। मैं भी उसके साथ उन्हें देखकर आनन्दित होने लगा।


           

अक्षरा आज बहुत खुश लग रही थी। वह चहकती हुई मेरे साथ मेरी उँगली पकड़ कर चलने लगी। मैं सहज ही बीस वर्ष पहले की बात सोचने लगा और अनुभव करने लगा कि जैसे मेरी बेटी फिर से छोटी होकर मेरे साथ चल रही है और...और कुछ देर के लिए मैं अपने अतीत में झाँकने लग गया। स्कूल में बच्चों के साथ रहते-रहते आज चौबीस वर्ष हो गये। न जाने कितनों को बड़े होते देखा... कोई डॉक्टर, इंजीनियर और कोई सेना में भर्ती होकर देश की सेवा कर रहे हैं।
 


मेरे अपने बच्चे कब बड़े हो गये पता ही नहीं चला। पता चले भी कैसे आखिर इन्हीं छोटे-छोटे बच्चों में वही वात्सल्यता प्राप्त होती जा रही थी। अचानक अक्षरा मेरी उँगलियों को जोर से खींचती हुई कहती है, 'अरे सर! हम स्कूल आ गये, आप क्या सोच रहे हैं?'


          स्कूल गेट पर पहुँचते ही रोज की तरह तीन-चार सौ बच्चों को आह्लादित और पुलकित होते हुए देखकर यूँ लगता है कि जैसे यह मेरे किसी पूर्व जन्म के पुण्य का प्रताप है। प्रार्थना के बाद अक्षरा ने ज़िद किया कि, 'सर! पहले मेरी कक्षा में चलिए।' अक्षरा मुझे खींचकर अपनी कक्षा में ले गयी। कक्षा की दीवार में उत्तरप्रदेश की राजकीय पक्षी  'सारस' का चित्र बना था। अक्षरा ने सभी बच्चों को बताया कि, 'आज हम राजकीय पक्षी 'सारस' को देखे हैं, आप सबको बताइए सर!।' उसकी आवाज यूँ लगी कि जैसे 'आप बताइए न पापा!' मुझे लगा कि बीस साल पहले वाली मेरी बेटी मुझसे कुछ पूछ रही है। मैं अवाक होकर बड़े ध्यान से अक्षरा को देख रहा था। उसे नहीं मालूम कि चश्मे के नीचे मेरी आँखें नम हो गयी हैं। सारस के चित्र की तरफ चेहरा छुपाकर रुमाल से आँखें पोछकर मैंने अक्षरा के कौतूहल को शान्त किया। अक्षरा के साथ सभी बच्चों ने कहा कि, 'सर! आज आप हमारी कक्षा में ही रहिए।' सचमुच शासन द्वारा संचालित 'हमारा आँगन, हमारे बच्चे' का वास्तविक चित्र सामने दिख रहा था। मैंने भी निश्चय किया कि आज आधा दिन पहली कक्षा में ही रहकर इन बच्चों के साथ संवाद करूँगा...इन सभी के 'मन की बात सुनूँगा। 'चहक' किट्स अभी आज ही तो लाया हूँ उसे गाड़ी से निकालकर बच्चों के बीच सजा दिया। बच्चों की खुशी का कोई ठिकाना नहीं था...और मैं...मैं तो कई बेटियों और कई बेटों को चहकता देख रहा था... मानो कि...मैं भी बच्चा बन गया था। वह 'विद्यालय का एक दिन' अकल्पित...अकथनीय...अपूर्व...अतुल्य और अविस्मरणीय बनकर मेरे अध्यापकीय जीवन को धन्य बना दिया।


लेखक
डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश',
सहायक अध्यापक, 
पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, 
विकास खण्ड-लक्ष्मीपुर, 
जनपद-महराजगंज।

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