पतझड़ के बाद

नव कोंपल सृजन कर

तरु  पुनः होगा  हवादार।

रंग-बिरंगे पुष्प खिलकर  

आएगा बसन्त  मजेदार।


दुख  की गहरी  चादर ताने

सोयी थी  प्रकृति पतझड़।

शिशिर  की  शीत  लहर में

थामे  रखती  अपनी  जड़।


धरती  ओढ़ के धानी  चुनर

मन्द-मन्द मुस्काए पुष्प संग।

सूखा  पेड़   होगा  हर्षित

भरेगी प्रकृति जब सुंदर रंग।


खोकर  सारे  पत्तों  को,

हिम्मत फिर भी न खोती।

खुद के गिरे  पत्तों  से  ही,

नव सृजन का हौंसला रखती।


पत्ती टूटी जो डाली से, 

पौधे  को   पोषित करती।

जड़  में  उसके  समाकर,

पुनः डाली नव जीवन लेती।


हरी-भरी जब होती प्रकृति,

पतझड़ का दंश भूल जाती।

मधुमासों   में  धरती के संग, 

यौवन  पर  अपने  इतराती।


कर्तव्य पथ पर तत्पर रहकर,

जंतु  जगत की  सेवा  करती

खाना-पानी, साँसें जीवन देती

मानव जगत की प्रेरणास्रोत बनती।

 

रचयिता

सन्नू नेगी,

सहायक अध्यापक,
राजकीय कन्या उच्च प्राथमिक विद्यालय सिदोली,
विकास खण्ड-कर्णप्रयाग, 
जनपद-चमोली,
उत्तराखण्ड।



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