विश्व पुस्तक दिवस

कभी हमें ना धोखा देती हैं,

पुस्तकें  धरोहर संजोती हैं।

ज्ञान का सदा भंडार भरतीं,

शिकायत कभी न करती हैं।।


अद्भुत नुस्खे, करें ज्योतिष गणना, 

सभ्यता, संस्कार को हो निरखना।

जलधि  सी  होती,  गहराई  इसमें,

मोक्ष, आध्यात्म ग्रंथों में परखना।।


बिन बोले, शंखनाद  कर जातीं,

बौद्धिक  क्रांति से, युग बदलतीं। 

घने तम को दिखातीं ज्ञान ज्योति,

मार्गदर्शक बन सदा राह दिखातीं।।


मातृत्व  लिये, फौलाद बनाये, 

पुस्तक  हमें  ब्रह्मांड  दिखाये।

आँचल में इसके है ज्ञान-निधि, 

अणु, परमाणु, विज्ञान बताये।।


जन-कल्याण  की सीढ़ी है बनती,

ज्ञान-तरंग  उर में, पुस्तक  भरती।

सत्य, सार, शिखर दिखाती पुस्तक,

जनकल्याण का उद्घोष बन जाती।। 


एहसास के घुँघरू, जब-जब बजती,

वीणापाणी शब्द-शब्द में  है सजती।

अंतर्मन की जब, खनकती ख्वाहिशें,

पुस्तक साहित्य की किलकारी बनतीं।।


रचयिता
वन्दना यादव "गज़ल"
अभिनव प्रा० वि० चन्दवक,
विकास खण्ड-डोभी, 
जनपद-जौनपुर।

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