झंडा दिवस

पुरातन काल से ही मानव प्रतीक रूप में 'झंडे' का प्रयोग करता आया है। आदिकाल से लेकर आज तक न जाने कौन सी ऐसी भावना... आकर्षण..न जाने कौन सा सम्मोहन है इस झण्डे में जो लोग इसके लिए अपना सब कुछ बलिदान करने से नहीं हिचकते हैं।
    'ध्वज' मानव की आस्था... विश्वास... महत्वकांक्षा...अभिलाषाओं का वह अनमोल ज्योतिर्मय पुँज है जो समय-समय पर उसका दिशानिर्देशन करता ही रहता है। आदिकाल से लेकर अब तक 'ध्वज' अपनी आन, बान और शान के रूप में पूजनीय है।
  पौराणिक साहित्य में भगवान शिव की ध्वजा पर 'नंदी', भगवान विष्णु की ध्वजा पर 'गरुड़' विद्ममान रहे हैं। लोगों की आस्थाएँ इनसे जुड़ी रहीं।
रामायण-महाभारत काल में भी योद्धाओं के अपने-अपने वैयक्तिक झंडे हुआ करते थे।
राज जनक की ध्वजा पर 'सीत'(हल) अंकित था।
 युग बदला...समय बदला... ध्वज भी समय,काल और परिस्थितियों के अनुसार बदलता गया। 15 अगस्त सन् 1947 को देश की स्वतंत्रता के साथ ही'झंडा'भी राष्ट्र  की गरिमा एवं प्रतिष्ठा का प्रतिनिधित्व करता है।
झंडे के मान-सम्मान का उत्तरदायित्व प्रत्येक भारतीय नागरिक का मौलिक कर्तव्य है।
हमारा ध्वज भारतवासियों की आकांक्षाओं और आशाओं का प्रतिनिधित्व ही नहीं करता है वरन देश पर मर-मिटने की उत्कट भावना भी भरता है।
23 अगस्त सन् 1947 को केन्द्रीय मंत्री मंडल की रक्षा समिति ने भारत की तीनों सेनाओं जल, थल और वायु के जांबाज सैनिकों के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिए 7 दिसम्बर को 'झंडा दिवस' मनाने का संकल्प लिया।
'इस देश पर मर -मिटने की
कसम हम सभी खाते हैं।
कितने सुख-सपने लेकर के,
हम इसको फहराते हैं।
जहाँ-जहाँ भी जाए झंडा,
ये संदेश सुनाता है।
वीरों के बलिदान की गाथा,
दुश्मन भी दोहराते हैं।
आइए! इस दिवस को तन-मन और धन के साथ अंगीकार कर इसकी आन, बान और शान को बरकरार रखने वाले वीर सपूतों को नमन करें।

लेखिका
डॉ0 प्रवीणा दीक्षित,
हिन्दी शिक्षिका,
के.जी.बी.वी. नगर क्षेत्र,
जनपद-कासगंज।

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