प्रकृति के सुकुमार कवि

सुमित्रा नंदन पंत जी की पुण्यतिथि पर विशेष

छायावाद के प्रमुख स्तम्भ माने जाने वाले 'प्रकृति के सुकुमार कवि' की कविता में प्रकृति का प्रेम उपस्थित होने का मूल कारण है कि उन्हें स्वाभाविक रूप से जो परिवेश मिला। वह अपने आप में सबके लिए सुलभ होने की बात नहीं है। उनकी प्रकाशित कुछ रचनाओं के सन्दर्भ में  लिखते हुए मैं कहना चाहती हूँ कि 'वह प्रकृति के कोमल व कठोर 'दोनों ही रूपों की चर्चा करने में सिद्ध हस्त हैं।
   प्रकृति के प्रति सम्पूर्ण समर्पण रखने वाले इस छायावादी कवि की दो पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं----
'छोड़ द्रुमों की शीतल छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
 बाले! तेरे बाल- जाल में
 कैसे उलझा दूँ लोचन'
पंत जी अपने जीवन को मधुर से मधुर बनाना चाहते हैं। माँ भारती की वन्दना करते हुए वे लिखते हैं-----
  'बना मधुर मेरा जीवन
वंशी से ही कर  दे मेरे
 सरल प्राण और सरस वचन
  जैसा-जैसा मुझको छ़ेड़े
बोलू अधिक मधुर मोहन
 रोम-रोम के छिद्रों से माँ!
 फूटे त़ेरा राग गहन।।।।।
  पंत  जी मानव मात्र के लिए...उसकी जीव़न जीवंतता के लिए समर्पित व्यक्तित्व वाले कवि हैं।
  अनावश्यक स्मारकों का निर्माण और उनमें मृतकों की पूजा का विधान का भी अभीष्ट नहीं।
   
    ताजमहल को देखकर भले ही कोई इसे 'प्रेम का पवित्र स्मारक' मानता हो किंतु पंत जी की दृष्टि इसे 'शवों का महिमामंडन' ही मानती है। उन्हें चिंता है---संसार के उन तमाम जीवंत लोगों की जो जीवित होते हुए भी मृत प्रायः जीवन जी रहे हैं।

  पंत जी के शब्दों में देखिए---
'हाय! मृत्यु का ऐसा अमर अपार्थिव पूजन,
जबकि स्वयं निष्प्राण पड़ा हो जन का जीवन।
शव को दें हम रूप-रंग, आदर मानव का,
और मानव को चित्र बना दें, कुत्सित शव का।'
यद्यपि पंत जी ने अपना साहित्यिक जीवन 'सुन्दरम' के भाव से आरम्भ किया किन्तु 1942 में 'भारत छ़ोड़ो आंदोलन' से प्रेरित होकर ही उन्होंने 'लोकायतन' की रचना की। जब वह भारत भ्रमण पर थे तो उनका परिचय श्री अरविंद जी से हुआ और वह उनके जीवन दर्शन से अत्यधिक प्रभावित हुए। उन्होंने 'स्वर्ण किरण', 'स्वर्ण धूलि' एवं 'उत्तरा' जैसी रचनाऐं लिखीं। वह कार्ल मार्क्स के साम्यवादी प्रभाव से प्रभावित थे जो कि 'युगवाणी' और 'ग्राम्या' में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। धीरे-धीरे वह मार्क्सवाद के प्रभाव से दूर होने लगे। उन्हें समाज में फैली विसंगतियाँ व समस्याओं का समाधान 'गाँधीवाद' में दिखाई पड़ा।
'सुख भोग खोजने आते सब,
आये तुम करने सत्य खोज'
अंत में 20 मर्ई 1900 में जन्मे प्रकृति के  सुरम्य अंचल कौसानी के इस महान कलाकार का निधन 28 दिसम्बर 1977 को हो गया लेकिन जब तक हिंदी साहित्य है...उसके अध्येता हैं... और पाठक हैं.. पंत जी के काव्य की अनंत कीर्ति रश्मियाँ विकीर्ण होती रहेंगीं।
 'अरविंद दर्शन के सफल व्याख्याता!
छायावाद के कीर्ति स्तम्भ!
 गाँधी की विद्रोहात्मकता को वाणी देने वाले!
 साहित्यिक संत..कवि पंत!
तुम्हारे चरणों में विनत वन्दन
सादर शीश नमन।

लेखिका
डॉ0 प्रवीणा दीक्षित,
हिन्दी शिक्षिका,
के.जी.बी.वी. नगर क्षेत्र,
जनपद-कासगंज।

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