उद्बोधन सूत्र

अक्सर ही बच्चों से बोलते/बात करते-करते सूत्रपरक बातें बन जाती हैं।


* कुछ दिन पहले से बच्चों से कहना शुरू किया है कि अपनी बोलचाल में मानक भाषा का प्रयोग करो।
जैसे : 'इनने मोय पढ़ाओ है' की बजाय 'इसने मुझे पढ़ाया है' कहो 
(और बच्चे मानक भाषा जानते भी हैं, बस व्यवहार में प्रयोग नहीं करते। हालांकि लोकभाषा का अपना महत्त्व और मिठास है, फिर भी कुछ सोचकर यह किया।)


* पूरे दिन में यदि हम 4000 शब्द बोलते हैं तो अनेक शब्द गैरज़रूरी होते हैं। उनके प्रयोग से बचो क्योंकि बोलने में ताक़त लगती है। ताक़त भोजन से आती है और भोजन पैसे से आता है। अतः कम बोलने का मतलब पैसे बचाये और पैसे बचाना यानी पैसे कमाना। तो अब कम बोलकर कौन-कौन कमाई शुरू कर देगा?
       (उक्त concept को 'हितभुक्, मितभुक्, ऋतभुक्' वाली कहानी द्वारा भोजन संबंधी आदत से भी जोड़ा)


* तुम आपस में तो काफी बातें करते हो तो अब ऐसा करो कि कोई गलती होने पर आपस में एक-दूसरे को टोको (मानक भाषा से इतर बोलने, चप्पल की आवाज़ आने, बाल-यूनिफॉर्म आदि व्यवस्थित न होने, समय व्यर्थ गँवाने आदि अनेक स्थितियों में)
            (निंदक नियरे राखिये... विस्तारपूर्वक समझाकर स्वस्थ आलोचना करने और सहने के गुर भी बताये)


* कुछ बच्चे अक्सर फूल तोड़ने की अनुमति माँगते हैं, उन्हें माखनलाल चतुर्वेदी की कविता 'पुष्प की अभिलाषा' सुनायी-समझायी, उसके अतिरिक्त उसे तितली/भंवरे के अधिकार से भी जोड़ा और यह भी कहा कि तुम बच्चे भी अपना कोई विचार इसमें सोच/जोड़ सकते हो।


 और अंत में सबसे खास बातें :

1. 'मैंने कहा है', इसलिए मत मानना, खुद सोचना और सही लगने पर ही करना।

2. गलतियाँ मैं भी करता हूँ इसलिए भेड़ बनकर मत चलना और मेरी गलती पर तुम मुझे भी टोक सकते हो।

3. Idea आता है, प्रयोग करते हैं। कई बार असफल होते हैं लेकिन कोशिश करना नहीं छोड़ना है। सोचो स्कूल की बेहतरी के लिए हम क्या नयी बात कर सकते हैं?

4. समस्या हमारी, समाधान भी....

लेखक
प्रशान्त अग्रवाल,
सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
ज़िला-बरेली (उ.प्र.)

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