बेटियाँ

आँगन की मासूम सी कली,

मेरी दुनिया की खूबसूरत परी,

अपने सपने रोज बोलने लगी,

कुछ नया करने की सोचने लगी।


दुनिया के रिवाजों से अनजान,

नए रास्तों पर चलने लगी,

अवनि लेखरा बनकर,

दिव्यांगता को मात देने लगी।


रूढ़िवादिता को झुठला कर,

ऑटो रिक्शा चालक भी बनीं बेटियाँ,

पहलवान साक्षी मलिक बन कर,

ओलंपिक पदक भी जीती हैं बेटियाँ।


सूरज का तेज, चंदा सी शीतलता,

धरती के समान होती सहनशीलता,

हर परिस्थिति में कर्तव्य बोध होता,

बेटी ना होती तो खुशियों का अस्तित्व न होता।


रचयिता

भारती मांगलिक,

सहायक अध्यापक,

कम्पोजिट विद्यालय औरंगाबाद,

विकास खण्ड-लखावटी,

जनपद-बुलंदशहर।



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