वर्तमान शैक्षिक परिवेश और लिंग संवेदीकरण

मैने MA education में "वर्तमान शैक्षिक परिवेश और लिंग संवेदीकरण" के अध्ययन और शोध के दौरान पाया कि "जीवनदर्श /व्यक्तित्व"  निर्माण के  क्रम में व्यक्ति के विचारों पर उसकी विचार श्रृंखला, सामाजिक परिवेश और परिवार व समाज के द्वारा उसके और उसके साथियों के साथ किये जा रहे समभाव या भेद-भाव  का निश्चित प्रभाव पड़ता है। इसी कारण दो अलग - अलग परिवेश में पले-बढ़े लोगों का व्यक्तित्व और उनकी नेतृत्व क्षमता अलग अलग होती है।
विद्यालयी वातावरण में सभी का समान विकास हो ये हमारी जिम्मेदारी है, लेकिन क्या वास्तविक रूप से एक शिक्षक इस जिम्मेदारी का निर्वहन कर पाता है या वो सिर्फ अपने पाठ्यक्रम को ही पूर्ण करने में ही समय व्यतीत करता है। हमारी शिक्षा व्यवस्था के दो महत्वपूर्ण पहलू है जो एक दूसरे पर आश्रित है और गौड़ रूप से इसे प्रभावित भी करते हैं।
1--पाठ्यक्रम
2--बाल विकास
शिक्षक एक साथ दोनों पक्षों पर ध्यान देते हुए समावेशी विकास की परिकल्पना को पूर्ण करना चाहता है, पर कहीं न कहीं उस पर इनसे भी आगे कई और जिम्मेदारी दे दी जाती है जिसे पूर्ण करने में ही उसका अधिकांश समय और ध्यान लगा रहता है। अतः वो चाहकर भी अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन उस रूप में नहीं कर पाता जिस रूप में वो कर सकता है या करना चाहता है।

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था अपने मूर्त रूप में सभी का समावेशी विकास कर सके इस हेतु ये आवश्यक है कि शिक्षक को पर्याप्त संसाधन और समय प्रदान कर निश्चित उद्देश्यपरक कार्य ही दिए जाएं, जिससे वह अपने शैक्षिक उद्देश्यों को प्राप्त कर सकें। लिंग संवेदीकरण को समाप्त करने का सर्वोत्तम साधन सह- शिक्षा व्यवस्था है। ये बालक-बालिका में समभाव और कार्य-कारण सहसम्बन्धो को परिलक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। लिंग संवेदीकरण आज तक इसीलिए संवेदी बना हुआ है क्योंकि मध्यकालीन समाजिक व्य्वस्था ने स्वयं इसे इतना संवेदी बनाया। आज हम इसकी संवेदनशीलता को समाप्त करने हेतु प्रयासरत है जबकि उस समय इसको संवेदी बनाये जाने हेतु प्रयास  किये जाते रहे।
भारतीय संस्कृति में एक स्त्री को अपनी शिक्षा, व्यक्तित्व विकास और विवाह के लिए साथी चुनने आदि के पर्याप्त मौके दिए जाते थे और आज भी उसकी झलक हिन्दू परंपरा और संस्कृति में देखने को मिलती है। मध्यकालीन आक्रांताओ के कारण ये अति संवेदनशील मुद्दे बन गए और उसकी परिणीति आज एक विशेष लिंगवर्ग को देखने को मिलती है।
अतः आज हमें एक  बार  पुनः अपने सामाजिक परिदृश्य को नए सिरे से गढ़ने की आवश्यकता है, जिसमें शिक्षक की अहम भूमिका होगी। वर्तमान समय में लिंगानुपात असंतुलित होने के कारण समाज का विद्रूपी चेहरा भी दिखाई देता है और समाज का एक तबका भी विकास के मार्ग में पिछड़ता नजर आता है। अतः समावेशी विकास हेतु हमें दोनों ही लिंगवर्गीय लोगों को समान विकास के अवसर उपलब्ध करवाते हुए देश व समाज के संतुलित विकास की नींव रखनी पढ़ेगी, तभी इस दिशा में समावेशी सुधार सम्भव होगा।

लेखक
सुनील पाठक
UPS atrarmaaf
कबरई, महोबा।

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