जल्दी तुम सूरज भईया आओ

तोड़ कुहासे 🌥का चक्रव्यूह
जल्दी तुम सूरज भईया आओ

आसमान में देखो
कोहरे की बदली हैं छाई
शीतलहर ने भी अपनी
असली छवि है दिखाई
ओस की बूँदों ने पौधों पर
है खूब बरफ जम आई
बादल और सूरज के बीच
अब तो जंग है छिड़ आई
तोड़ कुहासे का चक्रव्यूह
जल्दी तुम सूरज भईया आओ
बहुत हो गया आँख -मिचौली
यूँ अब न बच्चों को तरसाओ!!

कैसे खेलें हम सब 
काँपे जब अंग-अंग हैं
सूना है अपना मैदान 
और सूना घर -आँगन है
ठिठुर रहे पंछी सारे 
ठिठुर ऱहे भी हम है
कम्बल और रजाई के बाद भी
ठण्डक बिल्कुल भी न कम है
दुबक -दुबक के 
सिकुड़-सिकुड़ के 
निकला जाता दम है
तोड़ कुहासे.....

बहुत हो गए दिन अब
ये छुट्टी न हमको भाता
देखो न स्कूल का रस्ता
है हमको बहुत  बुलाता
बंद पड़ी हुई किताबें
हमको है ललचातीं
कितने पीछे हो गए हैं हम
ये कह हमको खूब डराती
सिलेबस होगा कैसे पूरा
इसका धौंस  बड़ा है दिखातीं
सन्नाटा दीवारों को मुँह है चिढ़ाता
स्कूल की घंटी भी टन्-ट्न बजने
को मचला जाता
टीचर की  है याद सताती
घर में नहीं लगता मन है!!
बच्चों से  ही तो स्कूल है 
स्कूल से ही तो हम हैं
तोड़ कुहासे ......

लक्ष्मन काका की
 दुकान  जा
हम  पढ़ते रोज अखबार
स्कूल के खुलने का क्या
कोई छपा है समाचार
हँस कर कहते चाचा बच्चों
क्यों करते हमको तंग हो 
गलन बहुत है देखो न
इसलिए स्कूल आज भी बंद है
हो मायूस हम लौटकर
घर को वापस आते 
फिर अगले दिन यही क्रिया
वापस हम  दोहराते!!
तोड़ कुहासे......

रचयिता
सारिका रस्तोगी,
सहायक अध्यापिका,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय फुलवरिया,
जंगल कौड़िया,
गोरखपुर |

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