रानी तुम थीं मर्दानी
सन् अट्ठारह सौ सत्तावन,
पहला स्वतन्त्रता संग्राम।
युगों-युगों तक अमर रहेगा,
रानी लक्ष्मीबाई का बलिदान।।
वीरांगना, हे लक्ष्मीबाई!
रानी तुम थीं मर्दानी।
अंग्रेजों से लोहा लेने,
की मन में थी धुन ठानी।।
पिता मोरोपन्त ताम्बे जी की,
बड़ी बहादुर मनु सन्तान।
बचपन में ही बरछी, भाले,
और खिलौने बने कृपाण।।
मणिकर्णिका नाम तुम्हारा,
ब्याही थीं गंगाधर राव।
झाँसी की रानी कहलायीं,
अंग्रेजों से लिया टकराव।।
राजा थे चिन्तित अति क्योंकि,
पुत्र का हो गया देहावसान।
राज्य हड़प लेते अंग्रेज थे,
जो होता राजा नि: सन्तान।।
लिया गोद तब पुत्र दामोदर,
झाँसी राज्य बचाने को।
मगर क्रूर साम्राज्य ब्रिटिश,
आतुर था झाँसी हथियाने को।।
जन्मभूमि की रक्षा के हित,
पुत्र पीठ पर बाँध लिया।
ढाल और तलवार, कटारी,
ले चण्डी सा वार किया।।
जंग लड़ी थी बाँध पीठ पर,
प्यारा पुत्र दामोदर राव।
लड़ती रही साँस तक अन्तिम,
रानी चण्डी सी पर्याय।।
छूने दूँगी नहीं मैं झाँसी,
जब तक मेरे तन में रक्त।
प्रण था यह रानी का पक्का,
और थी मातृभूमि की भक्ति।।
राज्य बचाने की आतुरता,
मन में लेकर जोश अपार।
कई दिनों तक डटी युद्ध में,
गिरी अन्त में खाकर वार।।
सत्रह जून को, सन् सत्तावन,
हुआ रानी का देहावसान।
स्वामीभक्त सेवक रानी के,
रोते खुद को अभागे मान।।
दी मुखाग्नि नन्हें हाथों से,
दामोदर हो गया अनाथ।
रोयी धरती भी करूणा से,
झाँसी भी हो गयी अनाथ।।
रानी लक्ष्मीबाई जैसी,
वीर न होगी कभी दोबारा।
मातृभूमि की रक्षा करते,
हुए स्वयं को जिसने वारा।।
रचयिता
शिखा वर्मा,
इं०प्र०अ०,
उच्च प्राथमिक विद्यालय स्योढ़ा,
विकास क्षेत्र-बिसवाँ,
जनपद-सीतापुर।
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