अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस

सुनो स्त्री क्या तुमने कभी त्याग किया है?

अरे ये कैसा प्रश्न है बचपन से जवानी तक और जवानी से बुढ़ापे तक बस त्याग ही तो करती आ रही हूँ मैं, क्या तुमने कहीं नहीं पढ़ा इसे आज तक 

कभी भाई के लिए तो कभी माँ बाप के लिए शादी के बाद कभी पति के लिए तो कभी परिवार और बच्चों के लिए बस त्याग ही तो करती हूँ मैं। ये कैसा हास्यास्पद प्रश्न आज किया है तुमने, हैरान हूँ मैं??

ओह हाँ यह तो मुझे ध्यान ही नहीं रहा, अच्छा हुआ तुमसे पूछ लिया पर क्या कभी तुमने पुरुष के त्याग के बारे में भी कहीं पढ़ा सुना है कि नहीं?? वो जो फर्ज के नाम पर जिंदगी गुजार देता है, सारे अरमान सीने में दबाए, कभी सुना है उसके बारे में?

 

पुरुष का त्याग?? वो तो नहीं पढ़ा कहीं, वो क्या है?

अच्छा तो चलो आज इसे ही पढ़ लेते हैं.....

 

भविष्य का पुरुष है वह उसे बचपन में ही समझा दिया जाता है और आँसुओं को नहीं दिखाना कभी यह भी बचपन में ही बता दिया जाता है।

और वह भविष्य का पुरुष बस उसी बोझ तले ताउम्र जिए जाता है।

बचपन में नन्हीं परी सी बहिन के नाज उठाता है और अपना हिस्सा भी सहर्ष उसे दिए जाता है।

वो तो ऐसा आदर्श होता है कि बहिन ही नहीं उसकी सखियों के भी नाज उठाता है।

भाई है वह और बस, भाई का फर्ज निभाए जाता है।

हों न कभी आँखें नम बहिन की, बस इसी कोशिश में दिन बिताता है।

बेशक हो बहिन बड़ी तब भी, वह बड़ों सी जिम्मेदारी निभाता है।

बहिन के हर पग पर हर हाल में, वह साथ निभाता है।

दीदी से मनुहार तो करता है पर, तेरे लिए कुछ भी के जज्बे से भी नहीं मुकरता है।

बहिन की एक मुस्कान के लिए, क्या-क्या न वो जतन करता है?

भाई है वह अपने फर्ज पर मरता है, पुरुष है वह और अपनी ही भावनाओं से लड़ता है।

 

माँ की सेवा और भाभी के सब काम भी वह सहर्ष करता है, पर कभी नहीं वह किसी से कुछ कहता है।

पुरुष होने की सोच में कभी-कभी नहीं, अक्सर ही वह अपनी भावनाओं से लड़ता है।

माँ की बीमारी में मजबूती से डटा रहता है, पर कोई तो देखे वह कोने में खड़ा नम आँखों को क्यूँ मलता है?

पुरुष है वह बस अपनी ही भावनाओं से लड़ता है।

सीने में दबाए लाख तूफान लबों से बस यही कहता है, "मेरे होते तुम फ़िक्र न करो" और खुद रात रात भर फ़िक्र में जगता है।

 

पुरुष है वह बस अपनी ही भावनाओं से लड़ता है।

 

और फिर

एक दिन वह भी आता है जब उस नन्हें से फरिश्ते के सिर पर सेहरा सज जाता है।

प्यारी सी दुल्हनिया पाकर वह कुछ समय के लिए इतराता है,

पर .. यह सुख भी अक्सर जल्द ही उससे छिन जाता है।

जब माँ के शब्दबाणों में अब वह , 'जोरू के गुलाम' का तमगा पाता है।

वह लाचार पुरुष समझ ही नहीं पाता है कि सबके लिए सबकुछ करते हुए भी वह गलत कैसे हो जाता है?

अपनी दुल्हन की आँखों में भी वह दिन रात शिकायती लहजा पाता है और सब कुछ समझकर भी वह मौन होता चला जाता है।

माँ कहती है बीबी की ही सुनता है और बीबी कहती है मुझे कहाँ कुछ बताता है?

लाचार पुरुष बस हलकान हुए जिए जाता है।

पुरुष है वह अपनी व्यथा कहाँ वह किसी से कह पाता है?

उफ्फ ये पुरुष, पुरुष होकर भी कहाँ चैन पाता है?

करता है सबको और सभी को ही वह चाहता है पर फिर भी सारा जीवन ताने ही वह पाता है।

पुरुष क्या सच में सुख से जी पाता है??

बच्चों की खुशियाँ और पत्नी के सोलह श्रृंगार पर वह बलि-बलि जाता है।

फिर भी 'पापा को कहाँ कुछ समझ आता है'? के शब्दबाणों से नवाजा जाता है।

पुरुष है वह बस अपनी ही भावनाओं को छुपाए जाता है।

दो नाव के सवार की तरह वह भी डूबता चला जाता है, पर गलती कहाँ है फिर भी न वह समझ पाता है।

अहम रिश्ते मुँह चिढ़ाते से लगते हैं, पर सहमा-सहमा सा पुरुष किसी से भी कुछ न कह पाता है।

 

त्याग करती है नारी, हर कोई यह तो बताता है, पर..

पुरुष तो बचपन से ही बलिदान किए जाता है, यह कहाँ किसी पाठ में पढ़ाया जाता है?

 

कभी खिलौने, कभी मिठाई तो कभी-कभी पॉकेट मनी भी वह बहिनों पर लुटा आता है, फिर भी न किसी से कभी सराहना वो पाता है।

वह कुछ भी करे, पर यह तो उसका फर्ज है कहकर उसे समझाया जाता है, कभी भी उसे सराहना के दो शब्दों से भी न नवाजा जाता है।

पुरुष है वह बस अपनी ही भावनाओं से खिलवाड़ किए जाता है।

जीवन अपनी मर्जी का कभी भी न वह जी पाता है फिर भी किस्मत तो देखो, मर्जी का मालिक वह कहलाता है।

 

माँ के उलाहने, पिता की डाँट सबकुछ हँसी-हँसी  सह जाता है पर कोई भी न उसे समझ पाता है।

एक पुरूष बस पुरूष बन, भावनाओं की बलि दिए जाता है।

हँसी का मुखौटा मुँह पर लटकाए वह हँसी खुशी जीवन बिताता है।

पुरुष है वह बस इसलिए ही मर्जी का मालिक कहलाता है।

 

सभी उन पुरुषों को समर्पित जिन्होंने कठिन से कठिन समय में भी अपने कर्तव्यों से मुँह नहीं मोड़ा और कभी किसी का दिल नहीं तोड़ा।

 

 

जब एक लड़की आँख खोलती है तो अपने आप को पिता की हथेलियों में पाती है और धीरे-धीरे बढ़ती हुई यह पिता को ही अपना आदर्श बना लेती है। 

खुशकिस्मत होती हैं वो बेटियाँ जिन्हें पिता और भाई का सानिध्य ताउम्र मिलता है। मानें या न मानें पर ये पुरुष हर स्त्री की जीवन ऊर्जा होते हैं। 

अंतराष्ट्रीय पुरुष दिवस पर समर्पित हैं चंद पंक्तियाँ - 

 

पुरुष

माता-पिता का मान, ढाल और सुरक्षा चक्र होते हैं पुरुष।

अपनी जरूरतों को दरकिनार कर घर चलाते हैं पुरुष।

माँ, बहन, बेटी और पत्नी को, तुम हो खास का एहसास कराते हैं पुरुष।

मन की व्यथा मन में दबाए, किसी से ये कह नहीं पाते पुरुष।

कभी-कभी माँ और पत्नी की रार में पिसकर रह जाते हैं पुरुष।

लाख तूफान हों दिल के अंदर फिर भी मुस्कुराते हैं पुरुष।

पिता और भाई के रुप में देवता स्वरूप होते हैं पुरुष।

पति भी बनें गर मनमीत से तो नारी हृदय में रहते देवस्वरूप।

मुश्किल में हो नारी कोई तो उसकी ढाल बन जाते सच्चे पुरुष।

नारी है गर देवीस्वरुपा तो देवता सम होते हैं  पुरुष।

इनको मिले मान सम्मान तो इसपर सर्वस्व लुटा देते हैं पुरुष।

ऐसा नहीं कि सताए नहीं जाते हैं पर अपनी व्यथा कह नहीं पाते हैं पुरुष।

 हृदय में इनके झाँकना है  दुरुह, पर मोम से कोमल भी होते हैं पुरुष।

नारी की व्यथा सब मानते, पर इनकी पीड़ा को समझते हैं बस पीड़ित पुरुष।

पिता, सखा, अग्रज और पति रुप में पूजनीय हैं पुरुष।

आज का दिन है बड़ा अनमोल, अपनी उपलब्धियों पर मान पाते हैं सब पुरुष।

 


रचयिता 

पूनम सारस्वत,

सहायक अध्यापक,

एकीकृत विद्यालय रुपानगला,

विकास खण्ड-खैर

जनपद-अलीगढ़।



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