धरती की पुकार

अनजानी आवाजें कानों में गूँज रही,

करुण क्रंदन कर धरती हमें पुकार रही।

हे निष्ठुर मानव क्यों नहीं चेत रहा,

भविष्य की तस्वीर क्यों नहीं देख रहा।

सँभल जा नहीं तो वह दिन आएगा

अन्न, जल, ऑक्सीजन को तरस जाएगा।

निज सुख के खातिर तूने 

प्रकृति को ही उजाड़ दिया

वनों में चला दी आरियाँ, काट डाले पहाड़

वन्यजीवों के जीवन पर भी, किया तूने प्रहार।

ऊँचे-ऊँचे भवन और बन गई ऊँची इमारतें,

पाकर आज की खुशियाँ, 

नहीं सुन पा रहा भविष्य की सिसकियाँ।

चकाचौंध ही यह दुनिया की

तुझे आज  दिख रही,

आने वाले भविष्य के खतरे की

क्या आहट तुझ तक नहीं आ रही।

अन्न उगाने को जमीन ना होगी,

ऑक्सीजन देने को वृक्ष।

जल का ना संरक्षण होगा,

सोचो ना सुखद भविष्य फिर कैसे होगा?

वर्तमान के सुख  के खातिर, 

पर्यावरण को उजाड़ रहे।

अपने सुख की खातिर  तुम,

नई पीढ़ी का भविष्य बिगाड़ रहे

इतना प्रहार न कर धरा पर,

कि सँभलने का मौका मिल ना पाए

तुम्हारे कर्मों के कारण, भावी पीढ़ी जी ना पाए।

मानव हो मनुष्यता का कुछ तो लिहाज करो,

पर्यावरण को बचाने का कुछ तो प्रयास करो।

जल बचाने, वृक्ष  लगाने का मिल प्रयास करें

आओ ना हम सब मिलकर,

धरती मांमाँ का श्रृंगार करें।

सजी रहेगी धरती माँ, सुखमय  सब का जीवन होगा,

तभी तो इस धरती पर, मानव तेरा जीवन सार्थक होगा।


रचयिता

दीपा कर्नाटक,
प्रभारी प्रधानाध्यापिका,
राजकीय प्राथमिक विद्यालय छतौला,
विकास खण्ड-रामगढ़,
जनपद-नैनीताल,
उत्तराखण्ड।

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