बालमन का दुःखद एहसास

बालमन का दुःखद अहसास!!
आखिर हमारे व्यवस्था तंत्र की ऐसी कौन सी मजबूरी है जो इस स्वतंत्र भारत के गाँव और गरीब परिवार के बच्चों को बार -बार ये अहसास कराने से नहीं चूकते कि तुम गरीब हो, गाँव के हो और तुम अमुक जाति या धर्म के हो इसलिए तुम्हें  फ्री में किताबें , कपड़ा , भोजन और पढ़ाई मिल रही है। और कुछ बच्चों को मात्र इसलिए कुछ भी फ्री नहीं मिलता क्योंकि वह अमीर घर के, शहरी या अमुक जाति अथवा धर्म के हैं। जहाँ एक ओर कुछ बच्चे अपने घरों में विभिन्न आधुनिक संसाधनों के साथ अपनी छुट्टियों को यादगार बनाकर मानसिक , शारीरिक और मनोवैज्ञानिक ढंग से अपने मन मष्तिष्क को मजबूत बनाने में जुटे हैं। वही हमारी प्रशासनिक व्यवस्था गाँव के गरीब बच्चों को ये अहसास कराने के भरसक प्रयास में जुटी है कि तुम गरीब हो, भूखे हो, कमजोर हो इसलिए छुट्टियों में न घूमो न अपने खेल खेलो, बस तैयार होकर भोजन की चिंता में लग जाओ। न तुम्हारे पास लूडो है, न कैरम बोर्ड, और न ही शतरंज जैसे खेल के साधन। तुम देहात के देशी खेल खेलकर शरीर से मजबूत होते थे , सभी के साथ बिना भेदभाव के खेलते थे। वह भी अब दोपहर के भोजन से छीनने का प्रयास किया जा रहा है जिससे हमेशा के लिए सब कुछ फ्री की लालसा में दब्बू और गरीब बन कर रह जाओ।
एक दिन यही भेदभाव उन बच्चों के आपस में खेलते समय हमने गाँव में देखा। जब बच्चे खेलते खेलते एक दूसरे से कमजोर साबित होने लगते हैं तो एक बच्चा दूसरे को ताने मारता है -"ठीक है ..ठीक है ... बड़ा आया कानूनी ..तभी तो उस  प्लेट वाले और खाखी वर्दी वाले फ्री स्कूल में पढ़ता है।,, अब तक जो बच्चा सभी तरह भारी पड़ रहा था लेकिन उसने जब फ्री का ताना सुना तो बच्चा अपने पिता की गरीबी और बेबसी को याद कर बेचैन हो उठा। वह अपने को असहज महसूस करने लगा तथा अब वह सामने वाले साथी से अपने को मनोवैज्ञानिक ढंग से कमजोर समझने लगा। इस तरह फिर वही विषमतावादी जड़ें बच्चे को कोमल मन में विकास करने लगी। जिनको खत्म करने के लिए हमारे महापुरुषों ने अपने जीवन को समर्पित कर रखा था। परन्तु अब फिर ये वर्तमान व्यवस्था अमीर और गरीब तथा शहरी एवं ग्रामीण के रूप में विकसित होती जा रही। लेकिन व्यवस्था के कर्णधार / व संचालक इसे जनहित बता कर अपने को गौरवान्वित महसूस कर स्वयं के महिमामण्डन में व्यस्त हैं। जबकि ये पिछली विषमताओं से भी जटिल व भयंकर हो रही है । जो हमारी मानवीय सभ्यता के लिए पतनकारी साबित हो सकती है । इसलिए देश के व्यवस्थापको और बुद्धिजीवियो आपस में विचार करो और सोचो---
  1.क्या ये प्रत्यक्ष फ्री व्यवस्था हमारे गाँव के गरीब परिवार के बच्चों के बाल मन को दुखद अहसास नहीं कराती है?
2.क्या इस प्रत्यक्ष फ्री व्यवस्था को अप्रत्यक्ष सहयोगात्मक व्यवस्था के रूप में नहीं बदला जा सकता है।
3. विद्यालय स्तर पर दी जाने वाली बच्चों की फ्री व्यवस्था को हम क्या अभिभावकों को सीधे नहीं दे सकते हैं। या सभी बच्चों को 6 से 14 वर्ष तक एक जैसी शिक्षा व्यवस्था नहीं सकते हैं। जिसमें अमीर- गरीब और गाँव- शहर सभी को एक जैसी शिक्षा ग्रहण करने का अवसर दे सकें।
परन्तु इस ओर अभी तक या तो किसी का ध्यान नहीं गया और यदि गया तो सम्भवतः जानबूझ कर ऐसी विषमता पूर्ण शिक्षा को कुटिलता पूर्वक बढ़ावा दिया जा रहा  है जिससे उनकी व्यवस्था में कोई कमी न आये। लेकिन देश के लिए बाल मन को दुखद अहसास कराना निश्चित ही राष्ट्र के लिए दुर्भाग्य पूर्ण है जिसका बहुत बड़ा मूल्य आने वाली पीढ़ियों को चुकाना पड़ सकता है।
सत्य ही है ...
लम्हों ने ख़ता की है और
सदियों ने सज़ा पाई है।
सत्यमेव जयते!
जय हिन्द!
विमल कुमार कानपुर (देहात)

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