मैं डर जाता हूँ

मैं डर जाता हूँ  अपनों के दूर जाने से,
मैं डर जाता हूँ अपनों के रूठ जाने से।
मैं डर जाता हूँ कालरात्रि के अंधकार से
मैं डर जाता हूँ शोषित-पीड़ित करूण पुकार से।।

अन्तस्थल की व्यथा सिमट नयनों में भर आती है।
दूर  रह कर भी जब  अपनों  की  याद  सताती है।।

जीवन जीना लगने लगता है जब अंधकार,
अन्दर ही अन्दर बहती जब डर की बयार।
आरोपों प्रत्यारोपों से लगने लगता जब डर अपार
अस्तित्व हमारा बौना जब करते दुर्जन साकार।।

चुनौती आज खड़ी है समाज में आत्म निर्दोषित करने की।
रावणी शक्तिेयों से बचकर  निर्दोषों  को रक्षित करने की।।

बुत बनकर  रह जाता हूँ  निरपराध,
उर में स्वजनों के प्रति है प्रेम अगाध।

विचलित हो जाता है मन
साथ नहीं देता जब उपवन
वक़्त के साथ धीरे-धीरे बदलती है सोच
वक़्त के साथ धीरे-धीरे बढ़ता है आत्मचिन्तन
वक़्त के साथ धीरे-धीरे भरता है अन्दर का शून्य।।
            सादर। ।

रचयिता
रणविजय निषाद(शिक्षक),
पूर्व माध्यमिक विद्यालय कन्थुवा,      
विकास खण्ड-कड़ा, 
जनपद-कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश)।

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