धरती कितना देती

सूर्य  का  अंश  हो तुम।
थी धधकती अंगार तुम।।
युग युगान्तर बीत गया।
जब वायु का संचार हुआ।।

रजत - प्रताप सूर्य का पड़ता।
रंगीन तब तेरा नजारा दिखता।।
मृदुलता   है  तेरे  जल   में।
जिससे तृप्त सब जीव   होते।।

जमीं   तेरी   एक    है    माँ।
लेकिन   महता   भिन्न - भिन्न।।
कहीं  पर   ये   देवालय    है।
तो  कहीं  पर   ये  प्रेतालय  है।।

जडी़ -बूटी   तुझसे  मिलती   है।
मिलती  शुद्ध   हवा  तुझसे    है।।
अन्तः  करण  में झांँक  कर  देखा।
चिर-स्थायी रत्न भण्डार  तेरे  हैं।।

इस   माटी  के  खेल   निराले   हैं।
तेरे    कण - कण  का  मोल    है।।
कहीं पे  कानन  चादर सी  फैली  है।
पाषाण भी तेरे अनगिनत ही हैं।।

कहीं   तुहिन   की   चमक  बनी  है।
कहीं   झरनों का नजारा अनोखा।।
अनन्त आवश्यताएँ तूने पूर्ण की हैं।
धरती माँ तू कितनी अनमोल  है।।

रचयिता
मीना शाह,
सहायक अध्यापिका,
राजकीय कन्या जूनियर हाईस्कूल सिदोली,
संकुल - देवल,
विकास खण्ड - कर्णप्रयाग,
जनपद - चमोली, 
उत्तराखण्ड।

Comments

  1. Very nice mam aapne bahut achhi rachna ki hai .. aaj ke samay me es prkar ki kvitayen km milti hain dekhne ko .. 🙏

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  2. बहुत सुन्दर

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  3. बहुत सुन्दर रचना

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