निष्ठावान कौन

(मन में उमड़ी विचार तरंग)

किसी शिक्षक के योगदान का तुलनात्मक आँकलन क्या सरल है ?

कल्पना करें दो निष्ठावान शिक्षक हैं :
1. एक का विद्यालय शुरू में बदहाल था। उसके आने के बाद चीज़ें पटरी पर आयीं। विद्यालय परिणाम सभी मामलों में 90%
स्थितियाँ : शिक्षक मेहनती, गाँव के शांत-मिजाज लोग, सहयोगी स्टाफ, बेहतर प्रधान, शिक्षक के निजी जीवन की अनुकूलाताएँ आदि-आदि।

2. दूसरे का विद्यालय भी बदहाल था। उसके आने के बाद सुधार हुआ लेकिन विद्यालय अभी भी 50% पर है।
स्थितियाँ : शिक्षक मेहनती, गाँव का प्रतिकूल वातावरण, शेष स्टाफ की उदासीनता, निजी जीवन की प्रतिकूलताएँ आदि-आदि।

आप किस शिक्षक को श्रेष्ठ मानेंगे?
दावे के साथ सही उत्तर देना बहुत कठिन बल्कि असंभव है।

कर्म की गति बड़ी गहन है, जीवन की परिस्थितियाँ, हमारी सीमितताएँ, कमजोरियाँ, निर्णय करने वाले के पूर्वाग्रह आदि अनेक समीकरण हैं जिनमें सिर्फ ईश्वर ही सही निर्णय दे सकता है।

ऐसे में श्रेष्ठ शिक्षक, विद्यालय की पहचान सिर्फ नतीजों से आंकने का अर्थ है सिर्फ मंजिल को सलाम (जिसे सभी करते हैं)
जबकि असली सम्मान वहाँ है जहाँ आपके रास्ते के जूनून को सलामी दी जाए।

और गहराई में जाएँ तो असली सलामी दुनिया से नहीं, अपने ज़मीर से ईश्वरीय कृपा के रूप में मिलती है
क्योंकि
एक सूत्र यह भी है कि "जिस चीज़ के मिलने से हम खुश हों, हम उससे छोटे हैं" और असली खुद्दार सिर्फ ईश्वर और उनसे मिले पुरस्कार पर ही खुश होगा।

स्वामी विवेकानन्द ने एक बड़ी गहरी बात कही है, "बढ़ती आयु के साथ मैं यह पाता हूँ कि मेरी दृष्टि छोटी घटनाओं में महानता की खोज करती है। किसी बड़े पद पर तो कोई भी व्यक्ति बड़ा हो जायेगा। प्रशंसा के आलोक में एक कायर भी वीर हो उठेगा क्योंकि उस समय सभी लोगों की दृष्टि उस पर होती है। मेरी दृष्टि में सच्ची महानता वहाँ है, जहाँ एक सामान्य कीट चुपचाप, सतत, क्षण-क्षण, घड़ी-घड़ी अपना कर्तव्य करे जा रहा है।"

अब पुनः वही बात, इस संसार में  किसी के कार्य को जज कर पाना क्या आसान है?

व्यक्ति का ध्यान सिर्फ कर्तव्य निभाने पर होना चाहिए, इस बात से बेपरवाह होकर कि कोई मेरे कार्य को किस प्रकार तौल रहा है। संसार से मिला सम्मान तो 'जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि' के कारण कृत्रिम होता है। असली सम्मान तो अन्दर से उत्पन्न होता है जिसे आत्मसम्मान कहा जाता है और जिसके प्रबल होने पर किसी से मिला अपमान हमें अपमान-बोध नहीं करा सकता और किसी से मिला सम्मान हमें फूल के कुप्पा नहीं बना सकता।

लेखक
प्रशांत अग्रवाल,

सहायक अध्यापक,
प्राथमिक विद्यालय डहिया,
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी,
जिला बरेली (उ.प्र.)।

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