गाँव में कुछ बात है

शहर की कृत्रिमता से गाँव के गँवार ज़्यादा अच्छे हैं
अनपढ़ भले हों पर दिल के भाव अपेक्षाकृत सच्चे हैं

शहरों की नफ़ासत में गिरगिट मिलना आम बात है
गाँव के ठेठपन की खुद्दारी में 'कुछ' तो बात है

शहर में पड़ोसी का नाम-काम अक्सर नामालूम होने लगा है
गाँव वालों के लिए हर ग्रामीण मानो अपना है, सगा है

शहर में पड़ोस की खबर भी टीवी-अख़बार से पता चलती है
गाँव में खबर जंगल में आग की तरह फैलती है

शहर में रिश्ते ढोये जाते हैं
गाँव में रिश्ते निभाये जाते हैं

आलीशान मकानों से ज्यादा जगह है 'गँवारों' के दिल में
शहरी 'आप' से कहीं ज़्यादा अपनत्व है गंवारू 'तुम' में

शहर की कन्क्रीटिया फ्रेंडशिप के मुकाबले मिट्टी की सोंधी खुशबू है गाँव की यारी में
चमकती हाईब्रीड से अधिक स्वाद और  सेहत है देसी मटमैली तरकारी में

प्यारे बच्चों
तुम शहर जाना या मत जाना
लेकिन शहर को अपने अन्दर मत बसाना

गाँव का गौरव है
अन्नदाता की खेती-किसानी
ओस में भीगी पगडण्डी की भोर सुहानी

गीली मिट्टी की सोंधी महक
कोयल की कूक पंछियों की चहक

पेड़-पौधों से हरियाई वसुधा
चाँदनी रात में आकाश से  बरसती सुधा

दूर दीखता क्षितिज और खुला आसमान
रिश्तों में सरलता, अपनत्व और सम्मान

इन्हीं से तो आती है चेहरे पर असली मुस्कान
इन्हीं में छिपा है असली सभ्यता का उत्थान

संभव है कुछ अतिश्योक्ति हो गयी हो बात में
बातों पर मत जाइये, विचरिये इनके भाव में

रचनाकार
प्रशान्त अग्रवाल
सहायक अध्यापक
प्राथमिक विद्यालय डहिया
विकास क्षेत्र फतेहगंज पश्चिमी
ज़िला बरेली (उ.प्र.)

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