विजयादशमी

विजयादशमी-----(मूल्य बोध और नैतिकता के पुर्नस्मरण के साथ  नकारात्मकता पर सकारात्मकता की विजय का पर्व)
धन, ज्ञान और शक्ति प्राप्ति की कामना हर मनुष्य करता है और यह प्राप्त करने के बाद वह अपने आप को सर्वज्ञ मान लेता है ।
समस्त संसार को विजय करने की उसकी कामना बलवती होने लगती हैं ।
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धन, ज्ञान और शक्ति से सर्वोपरि मनुष्यता का एक विशेष गुण है वह है--मनुष्य का विवेक और सर्वहित की भावना।
यही गुण एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से पृथक बना देता हैं ।
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दशानन लंकापति रावण धन ज्ञान और शक्ति में अयोध्यापति श्रीराम से कमतर नहीं था।
राम और रावण को पृथक किया तो सिर्फ राम की 'सकारात्मक और सर्वहित' की सोच ने ।  
रावण व्यक्तिवादिता और अंहकार के मद में चूर था।
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मनुष्य अपनी शक्तियों का प्रयोग अपने व्यक्तिगत हितों और स्वार्थों के लिए करना चाहते हैं ।
समाज में बहुत कम व्यक्ति ऐसे हैं
जो स्वयं के साथ सर्वहित और विकास का स्वप्न देखते हैं ।
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श्रीराम ने मर्यादापूर्ण आचरण के साथ सदैव व्यक्तिगत सुखों का त्याग कर सर्वहित को महत्व दिया और एक आदर्श रामराज्य की स्थापना की।
एक ऐसा रामराज्य जिसकी कल्पना हम युगों बीत जाने के बाद भी करते हैं लेकिन वह रामराज्य पुनः स्थापित न हो सका क्योंकि फिर कोई श्रीराम अवतरित न हो सका ।
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धन ज्ञान और शक्ति का मद पतन की ओर अग्रसर करता है इस सत्य को हम प्रतिवर्ष रावणदहन के साथ पुष्ट करते हैं लेकिन जीवन में स्वीकार नही पाते ।
यह कोई मेला या मनोरंजन नही वरन् नैतिक मूल्यों के बोध का पर्व है ।  रावण दहन के साथ हमारी नकारात्मकताओं के दहन का पर्व है ताकि सकारात्मक सोच की रोशनी से हमारा समाज प्रकाशित हो सके, यह रोशनी एक दूसरे से स्थानांतरित होती हुई संपूर्ण समाज और राष्ट्र को प्रकाशित कर सके।
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लेखिका
डॉ0 अनीता ललित मुदगल,
प्रधानाध्यापिका
श्री श्रद्धानंद प्राथमिक पाठशाला,
नगर क्षेत्र-झींगुरपुरा, 
जनपद-मथुरा  (उ.प्र.)


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