अपना लक्ष्मी रूप दिखाओ
विधा- अतुकान्तिका
माँ! माँ!!
देखो....देखो!!
भूख से बिलबिलाते
ठण्ड में ठिठुरते नंग-धड़ंग
श्मशान पर फलों पर झपटते
तन ढकने को क़फ़न बटोरते...
बेबस इनको-उनको निहारते
सब पढ़ें, सब बढ़ें का उपहास करते बच्चे।
नाली में उतरते युवा
कूड़ों के ढेर में भविष्य तलाशते
पहाड़ों को तोड़कर
स्वयं को तराशते
कुछ खाने के लिए
जूठन बटोरते
नव निर्माण में स्वयं को खपाते
भारत का भविष्य सँवारते.....
उनकी बस्ती में कब जाओगी माँ
उन पर करुणा कब करोगी माँ।
सड़क बनाती......
पत्थर ढोती.....
स्वेद से नहायी ....
आँचल से पोंछती...
पीठ पर बचपन को ढोती
लुढ़कती... खाँसती नारी।...
नारी शक्ति..
नारी सशक्तीकरण....
ईंट भट्ठे में स्वयं को जलाती
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ को मुँह चिढ़ाती
प्रत्येक स्थिति में समर्पण करती
कदाचित् तेरा ही रूप है माँ!!!
झोपड़ी....फुटपाथ की तरफ
अब तो जाओ
कृपा बरसाओ
उनकी भूख को मिटाओ
अपना लक्ष्मी रूप दिखाओ
क्योंकि.. क्योंकि वह भी तेरे ही हैं
वह भी अर्पित करते हैं श्रद्धा सुमन
जलाते हैं आशाओं के दीप।
रचयिता
डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश',
सहायक अध्यापक,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द,
विकास खण्ड-लक्ष्मीपुर,
जनपद-महराजगंज।
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