कारगिल विजय दिवस
मुँह की खायी बार-बार,
फिर भी ना माना पाकिस्तान।
याद दिलायी नानी उसको,
कारगिल जब गये जवान।।
कश्मीर का राग वो गाये,
छीनना हमसे सदा वो चाहे।
एल० ओ० सी० का अर्थ न समझे,
अपनी ढपली राग बजाये।।
तोड़ी लद्दाख और कश्मीर की,
दुश्मनों ने बीच की कड़ी।
कसम खायी थी वीरों ने,
भारत माँ के चीर की।।
सियाचिन के पहरेदार,
नायक युद्ध के जो बने।
वीरता की पराकाष्ठा,
घुसपैठिए देख डरे।।
रक्त में वन्दे मातरम् का,
जयघोष था गूँज उठा।
आन-बान और शान की खातिर,
हुआ वहाँ पर युद्ध अनूठा।।
घेर लिया सरहद पर फिर,
पाकिस्तानी सेना को।
ऑपरेशन विजय चलाया,
टाइगर हिल्स को पाने को।।
मन था भावों से भरा,
अमर 'ज्योति' फिर जली,
था शहादत का वो मौसम।
घुसपैठियों में खलबली।।
देश की मिट्टी के खातिर,
परवाने थे चल पड़े।
बाँध कफन दीवाने फिर,
गलियों से थे निकल पड़े।।
जन्नत-ए- वादियाँ फिर,
सिंच गयीं थी खून से।
भाल चमका भारती का,
उन सपूतों के जुनून से।।
माँ की गोद में सोने को,
होड़-सी थी मची हुई।
किस-किसके शीश गिने जाएँ,
थी कतारें लगी हुईं।।
रिश्तों के बन्धन खोये थे,
कारगिल की घाटी में।
रक्त मिला था वीरों का,
फिर हिन्दुस्तान की माटी में।।
गोद हुई माँओं की सूनी,
बहनों ने राखी थी गँवायी।
कारगिल की घाटी में,
चहुँओर निष्ठुरता छायी।।
स्वप्न सजीले जो देखे थे,
नववधुओं ने वेदी में,
हवन हुए वो सुख सारे,
वीरों की शहीदी में।।
शौर्य की जीवित कहानी,
भारतीय सेना कहे।
यह देश रहना चाहिए,
हम रहें ना रहें।।
रचयिता
ज्योति विश्वकर्मा,
सहायक अध्यापिका,
पूर्व माध्यमिक विद्यालय जारी भाग 1,
विकास क्षेत्र-बड़ोखर खुर्द,
जनपद-बाँदा।
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