बुद्ध होना आसान है क्या

भानु अस्ताचल छिपे तम हो प्रसारित,

हृस्व दीपक पुञ्ज को जग आँकता है।


क्षीण हो तन-मन त्वरित नर क्रुद्ध होता।

निष्कपट  निश्छल  हृदय ही शुद्ध होता।

हेतु निज सुख  कष्ट सहते सब जगत में।

निज सुखों का त्याग परहित बुद्ध होता।


शून्य  में   अनुभव  सितारे   टाँकता  है।

हृस्व दीपक पुञ्ज को जग आँकता है।। 1 


वृद्ध, रोगी, मृत्यु को साकार  देखा।

विश्व में सुख है क्षणिक आकार देखा।

सत्य क्या है सत्यता को खोजने तब।

बुद्ध का पावन परम आचार देखा।


त्याग वैभव राजसी रज फाँकता है।

हृस्व दीपक पुञ्ज को जग आँकता है।। 2


बुद्ध होना है सरल क्या आप सोचो?

सोम तज पीना गरल क्या आप सोचो?

देखकर जो दुख पराए चैन खो दे।

वक्ष कितना हो तरल क्या आप सोचो?


वेदनाएँ मन पटल जो झाँकता है।

हृस्व दीपक पुञ्ज को जग आँकता है।। 3


भोग, तृष्णा अति सघन नजदीकियाँ हों।

अन्धता, पाखण्डता, चालाकियाँ हो।

हो न तुमको दुख भला क्यों, दव निगलते।

ध्यान, प्रज्ञा, कर्म फिर बारीकियाँ हों।


जग, उसे सद्ज्ञान दे जो, ताकता है।

हृस्व दीपक पुञ्ज को जग आँकता है।। 4


ज्ञात हो, अज्ञात, अपना या पराया।

मित्र-बैरी, दास या खुद को हराया।

हों प्रशंसक, दोष खोजी, वृद्ध, बालक।

भाव रख समभाव करुणा उर भराया।


क्षोभ कैसा सप्त वारिधि नाकता है।

हृस्व दीपक पुञ्ज को जग आँकता है।। 5


रचयिता

कवि सन्तोष कुमार 'माधव',

सहायक अध्यापक,

पूर्व माध्यमिक विद्यालय सुरहा,

विकास खण्ड-कबरई,

जनपद-महोबा।

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