राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हिंदी दृष्टि

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, 

बिन निज  भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को सूल।

                                    ' भारतेन्दु हरिश्चन्द्र'

       हमारे भारतीय साहित्यकार बुद्धिजीवी तथा समाजसेवी जनों ने हिंदी के महत्व को अपनी-अपनी तरह से व्याख्यायित किया है तथा सम्मान दिया है और हिंदी को अपने देश में स्थापित करने का प्रयास किया है। उसके महत्व को प्रतिपादित किया है। जब हम हिंदी की बात करते हैं तो सबसे पहले नाम आता है। हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का महात्मा गांधी का हिंदी प्रेम अद्भुत और अलौकिक था। उनका मानना था कि यदि हमें अपने देश, समाज और संस्कृति को जानना है, तो हमें हिंदी का सम्मान करना होगा तथा अपने कामकाज में हिंदी का प्रयोग करना होगा। हमें राजभाषा के रूप में उसको स्थापित करना होगा। तभी हमारा देश प्रगति के पथ पर क्रियाशील रह पाएगा गांधीजी का मानना था-

       "जिस प्रकार माँ के दूध से बच्चे के शरीर का निर्माण होता है, उसी प्रकार मातृभाषा के माध्यम से उसके मन और बुद्धि का विकास होता है।"

       महात्मा गांधी की मातृभाषा गुजराती थी और उन्हें अंग्रेजी भाषा का उच्च कोटि का ज्ञान था। उनके मन में सभी भाषाओं के प्रति सम्मान था उनकी इच्छा थी कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करे लेकिन सभी भारतीय हमारे देश में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा हिंदी सीखें।

       महात्मा गांधी ने सन 1909 में 'हिंद स्वराज' की स्थापना की और उसमें अपनी भाषा नीति की घोषणा भी की। उन्होंने भाषा के प्रश्न को स्वराज्य से जोड़ा तथा जनमानस के हित में यह कार्य करने का प्रयास किया और कहा-

       "स्वराज देश के करोड़ों भूखे अनपढ़ लोगों के लिए होना है तो जनसामान्य की भाषा हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाना होगा।"

       वे मानते थे किसी भी विषय को अभिव्यक्त करने के लिए जिस भाषा की आवश्यकता है वह भाषा हिंदी है। भाषा बालक की ज्ञान बुद्धि का एक साधन है अतः हिंदी भाषा का ज्ञान और उस पर अधिकार गांधीवादी शिक्षा दर्शन में एक सफल शिक्षक प्रमुख विशेषता है। उनका मानना था-

       "स्वराज देश के करोड़ों भूखे अनपढ़ लोगों के लिए होना है तो जनसामान्य की भाषा हिंदी को राष्ट्रीय भाषा बनाना होगा।"

       भारत को यह करने के लिए तथा सांस्कृतिक विरासत को संभालने वाली सर्वाधिक सक्षम लोकव्यापी भाषा हिंदी ही है। अपने इसी उद्देश्य के लिए उन्होंने सेवाग्राम वर्धा में 1936 में राष्ट्रभषा प्रचार समिति की स्थापना की जिसके प्रत्यक्षदर्शी  डॉ0 राजेंद्र प्रसाद बने। तत्पश्चात राजश्री पुरुषोत्तम दास टंडन सहित अनेक तत्कालीन दिग्गजों की साधना और विचार लेखन का माध्यम हिंदी बन गई। वे मानते थे किसी भी विषय को अभिव्यक्त करने के लिए जिस भाषा की आवश्यकता है वह भाषा हिंदी है।

       भाषा बालक की ज्ञान बुद्धि का एक साधन है अतः हिंदी भाषा का ज्ञान और उस पर अधिकार जरूरी है। गांधीजी हिंदी के प्रबल पक्षधर तो थे लेकिन उनकी हिंदी ऐसी हिंदी थी जो उर्दू और तथा पड़ोसी भाषाओं के साथ मिलकर हिंदुस्तानी हो गई थी।

       महात्मा गांधी ने हिंदी भाषा के साथ-साथ देवनागरी लिपि का भी समर्थन किया। उसके प्रचार प्रसार के लिए भी वह सदैव प्रयासरत रहे इसीलिए उन्होंने अपने पुत्र देवदास गांधी को हिंदी प्रचार के लिए दक्षिण भारत भेजा था । दक्षिण भारत 'हिंदी प्रचार सभा' की स्थापना पुणे की परिकल्पना का  परिणाम है। उन्होंने वर्धा में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना हिंदी के प्रचार प्रसार के उद्देश्य से की तथा जन नेताओं को हिंदी में कार्य करने के लिए प्रेरित किया।

       महात्मा गांधी ने जिस समय हिंदी  का प्रचार प्रसार किया उस समय का बहुत ही कठिन कार्य था। जिन प्रांतों की भाषा हिंदी थी वहाँ भी हिंदी की उन्नति वैसी नहीं थी जैसी होनी चाहिए थी। फिर अहिंदी भाषी प्रांतों की तो बात ही अलग थी। गांधी ने एक स्थान पर अपने विचार कुछ इस प्रकार व्यक्त किए हैं_

       "अंग्रेजी आज इसलिए पढ़ी जा रही हैकि उसका व्यवसाय एवं राजनीतिक महत्व है। हमारे बच्चे अंग्रेजी यह सोचकर पढ़ते हैं कि अंग्रेजी पढ़े बिना उन्हें नौकरियाँ नहीं मिलेंगी। लड़कियों को अंग्रेजी इसलिए पढ़ाई जाती है कि उनकी शादी में सहूलियत होगी।"

       

भारत की संस्कृति भारत की उन विभिन्न संस्कृतियों का मिश्रण है जो यहाँ सदियों से रची बसी है और उसे अपनी संस्कृति को समझने के लिए हिंदी का राष्ट्रभाषा के पद पर आना आवश्यक है। गांधी जी की हिंदी अवधारणा का संबंध उनकी भारतीय संस्कृति की इसी धारणा से है। गांधीजी के लिए हिंदी भारतीय अस्मिता मुल्क की पहचान थी। 


श्रीकृष्णदत्त पालीवाल ने अपने एक लेख में लिखा है-

       "हिंदी का अर्थ अनेकार्थी जगमगाती वैजयंती माला है। सरस्वती के गले का हार, वाग्देवी का सौंदर्य। वाणी के देवता गणेश के हाथ का लड्डू है। इसी लड्डू को खाकर गांधी जी ने अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद के विरुद्ध अभियान शुरू किया। उनकी भ्रमणशीलता ने पाया कि अन्य भाषाओं में चाहे कभी कभार देश बोला हो लेकिन हिंदी में पूरा देश बोला है।"

       महात्मा गांधी के 18 रचनात्मक कार्यों में हिंदी का प्रचार-प्रसार भी एक काम था। वे मानते थे कि बिना राष्ट्रभाषा के देश की स्वतंत्रता पंगु है क्योंकि भाषा के विषय में हमारी गुलामी ज्यों की त्यों बनी रहेगी। हिंदी के प्रति उनके मन में अदम्य उत्कंठा थी और इसके परिणाम स्वरूप दक्षिण अफ्रीका में प्रवासी भारतीय बच्चों के लिए कई विद्यालय संचालित किए तथा अन्य लोगों को भी ऐसी शिक्षा के लिए प्रेरित किया जिससे भारत की मातृ भाषाओं के माध्यम से हिंदी को आगे बढ़ाया जा सके। गांधीजी ने मन, कर्म और वचन से हिंदी के राष्ट्रभाषा रूप को देश के सामने रखा। उन्होंने सभी भारतीय भाषाओं के प्रति अपना समादर प्रकट किया है।

       धार्मिक एकता की सिद्धि के लिए गांधी जी ने राष्ट्र की समस्या के समाधान के लिए हिंदी उर्दू एकता को प्रतिपादित करने का प्रयास किया। जिन सिद्धांतों को उन्होंने प्रतिपादित किया किसी महान विभूति के लिए नहीं अपितु जन सामान्य के लिए तत्कालीन किया हिंदी भाषा के लिए एक बार उन्होंने कहा-

       "यदि मैं तानाशाह होता तो विदेशी भाषा में शिक्षा बंद कर देता। सारे अध्यापकों को स्वदेशी भाषाएँ और राष्ट्रभाषा हिंदी अपनाने के लिए मजबूर कर देता। जो इसमें आनाकानी करते उन्हें बर्खास्त कर देता। मैं पाठ्यक्रम को तैयार करने का इंतजार नहीं करता।"

       गांधी जी की भाषा नीति स्पष्ट थी और उसी के परिणाम स्वरूप स्वतंत्र भारत में नागरी लिपि में लिखित भाषा हिंदी को संघ की राष्ट्रभाषा की मान्यता दी गई। भारत में अंग्रेजी को संविधान से हटाने की व्यवस्था भी की गई थी। परंतु यह आज तक संभव न हो सका। वह मानते थे अंतर प्रांतीय भाषाएँ हिंदी के बिना भारत की भाषा नहीं बन सकती। वे यह भी मानते थे कि हम अंग्रेजी के गुलाम बने हुए हैं। हमें पहले अपने मन से समाज के मन से अंग्रेजी की गुलामी को हटाना होगा। उन्होंने लिखा है-

       "समूचे हिंदुस्तान के साथ व्यवहार करने के लिए हमको भाषाओं में से एक ऐसी भाषा की जरूरत है जिसे अधिक से अधिक संख्या में लोग जानते और बोलते हो और जो सीखने में सुगम हो। इसमें कोई शक नहीं कि हिंदी ऐसी भाषा है।"

       अंत में हिंदी के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए मैं अपनी एक कुंडलिया देकर अपनी बात का समापन करूँगी-

       "हिंदी बानी देश की, हिंदी ही पहचान,

       बिन हिंदी कैसे रहे, जीवित हिंदुस्तान।

       जीवित हिंदुस्तान, देश की शान रहेगी।

       रखे आत्मसम्मान, विश्व का मान गहेगी।

       कहे यशो वक्तव्य, रहे माथे की बिंदी,

       बोलो दै दै तान, हिंद की बानी हिंदी।।"

               

लेखक

यशोधरा यादव 'यशो'

सहायक अध्यापक,

कंपोजिट विद्यालय सुरहरा,

विकास खण्ड-एत्मादपुर,

जनपद-आगरा।



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