श्रम और श्रमिक
श्रमेव जयते की कहनि,तात्विक या परिहास।
देखा शोषण उम्र भर, और दरिद्रावास।।
हम श्रमजीवी सेवक जन हैं, नहीं मान सत्कार माँगते।
हम अपेक्षित सेवा अवसर, सेवा का अधिकार माँगते।।
हमें उपेक्षाओं ने जन कर, शोषण की गोदी में डाला।
ममता की करुणा को तरसे, अहंकार की दया ने पाला।।
हुए प्रदूषित सभी जलाशय, किस्मत की नदियाँ नद नाले।
प्यासा रहने की क्षमताएँ सेवाओं में विघ्न न डालें।
चाह नहीं मिनिरल वाटर की, चुल्लू में जलधार माँगते।
कन्नी हँसिया कलम कुदाली, जब-जब कीमत तय करती हैं।
चूल्हे से रोटी का सालन, मँहगाई छीना करती है।।
सेवा में अवरोधक बन कर, रोग बीमारी द्वारे आतीं।
असमय जीवन की बगिया में, कुहरा बन कर हैं छा जाती।।
एम्बुलेंस की नहीं अपेक्षा, मिले सहज उपचार माँगते।।
काम-दाम की दाम-काम की, चरचा"गरम-नरम हलुआ की।
सुखिया भौजी की लतकरियाँ, पनही टूट गईं कलुवा की।।
गोखरू और बिवाँई पीड़ा, चरचा सिसियारी मुलुवा की।
उखड़ी सड़कें गिट्टी गड़तीं, दुखद दास्तायें तलुवा की।।
हम तैयार धुँआ खाने को, तुमसे कोलतार माँगते।
दुनिया भर के अभाव जितने, उनसे अपना याराना है।
हमने बेबस लाचारी को, अपना जीवनधन जाना है।।
परसेवा में निष्ठा हमसे, ऋतु बसंत सीखा करता है।
इंद्रधनुष के रंग प्रेम से, फूलों में बाँटा करता है।।
जीवन साथी पलास के तरु, पतझड़ से त्योहार माँगते।
संसाधन निर्मित हैं हमसे, पर इनकी निष्ठुरता ऐसी।
देख बुढापा कन्नी काटैं, कलयुग की सन्ततियाँ जैसी।।
अपने सपने दीन हीन हैं, छानी छप्पर आते रहते।
पीड़ाओं की तर्ज ताल पर, गीत सुमंगल गाते रहते।।
अपने ही कर्तापन से हम, करना परोपकार माँगते।
सँकरी छोटी गलियों वाली, अपनी इच्छाओं की बस्ती।
पैबन्दों की जाली से ही, जहाँ आबरू झाँका करती।।
यहाँ बाजारें बड़े चाव से, जेब हमारी काटा करतीं।
अगले दिन की श्रम की ताकत, अपने टेंट टटोला करतीं।।
प्रथा उजरती के शिकार से,हम अपना उद्धार माँगते।
रचयिता
हरीराम गुप्त "निरपेक्ष"
सेवानिवृत्त शिक्षक,
जनपद-हमीरपुर।
बेहतरीन अभिव्यक्ति
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